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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - क्या कहा सो कहते हैं इन औषधियोंमें एक औषधिः जलतारिणी है और दूसरी औषधिः परशस्त्रनिवारिणी है ये दोनों औषधिः सोना रूपा तांबा इन धातुमें मढवाके भुजामें तुम धारण करो ॥ ३७० ॥ | कुमरेण समं सो विज्झासाहगो, जाइ गिरिनियंबंमि । ता तत्थ धाउवाइय, पुरिसेहिं एरिसं भणिओ ॥ ३७१ ॥ अर्थ - वह विद्यासाधकपुरुष कुमरके साथ जितने पर्वतका किनारा वहां जावे इतने धातुवादिपुरुषोंने ऐसा वचन कहा ॥ ३७१ ॥ देव! तुम्ह दंसिएणं, कप्पपमाणेण साहयंताणं । केणावि कारणेणं, अम्हाण न होइ रससिद्धी ॥३७२ ॥ अर्थ- हे देव अन्यदर्शित कल्पप्रमाणे साधतां रससिद्धी करतां हमारे कोई प्रकार से रससिद्धी नाम स्वर्णोत्पादक रसकी सिद्धी नहीं होती है ॥ ३७२ ॥ | कुमरेण तओ भणियं, भो मह दिट्ठीइ साहह इमंति । ता तेहिं तहाविहिए, जाया कलाणरससिद्धी ॥ ३७३ ॥ अर्थ - तव कुमरने कहा अहोपुरुषो मेरी दृष्टिके आगे यह रस साधो वाद उन्होंने उसी प्रकारसे किया करनेसे कल्याण रसनाम स्वर्णरसकी सिद्धि भई ॥ ३७३ ॥ श्रीपा.च. ९९ काऊण कंचणं साहगेहिं, भणियं कुमार! अम्हाणं । जंजाया रससिद्धी, तुम्हाणं सो पसाओत्ति ॥ ३७४ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020724
Book TitleShripal Charitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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