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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ ३५ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ- वह तेरा पुत्र इस वक्त अपनी स्त्रीसहित उज्जैनी में रहता है कैसा है वह साधर्मियोंने पूर्ण किया है स्वर्णादि द्रव्य जिसको और शोभन धर्म कार्य वही है प्रधान जिसके ऐसा और सुख भया है जिसके ऐसा सुखी रहता है ॥५९॥ तं सोऊणं हरिसियचित्ताहं वच्छ ! इत्थ संपत्ता । दिट्ठोसि बहूसहिओ, जुन्हाइ ससिव कयहरिसो ॥६०॥ अर्थ- वैसा गुरूका बचन सुनके हे वत्स मैं हर्षित चित्त भई ऐसी यहां प्राप्त भई हूं इस समय में चन्द्रमाकी चांदनी सहित चन्द्रके जैसा वह्नसहित तुमको देखा है यहां कुमरको चन्द्रकी उपमा और वह्नको चांदनी रात्रिकी उपमा कैसा है तैं किया है हर्ष जिसने ऐसा ॥ २६० ॥ ता वच्छ? तुमं बहुया, सहिओ जय जीव नंद चिरकालं । एसुच्चिय जिणधम्मो, जावज्जीवं च महसरणं २६१ अर्थ - तिस कारणसे हे पुत्र तैं वह्नसहित बहुतकालतक जयवन्ता होय सर्वोत्कृष्ट वर्त चिरंजीव रहो समृद्धि प्राप्त होवो इस जिनधर्मका जावज्जीव मेरे भी शरणा है | २६१ ॥ जिणरायपाय पउमं, नमिऊणं वंदिऊण सुगुरुं च । तिन्निवि करंति धम्मं, सम्मं जिणधम्मविहिनिउणा २६२ अर्थ —तदनंतर माता पुत्र वह यह तीन जीव श्री जिनेन्द्र देवका दर्शन करके और श्री सुगुरू महाराजको वन्दना करके सम्यक् धर्म करते हुए रहे कैसे हैं तीनों जिन धर्ममें निपुण है ॥ २६२ ॥ ते अन्नदिणे जिणवरपूयं, काऊण अंगअग्गमयं । भावच्चयं करिंता, देवे वंदंति उवउत्ता ॥ २६३ ॥ For Private and Personal Use Only भापाटीका सहितम्. ॥ ३५ ॥
SR No.020724
Book TitleShripal Charitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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