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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एयं च विमलधवलं, जो झायइ सुक्कझाणजोएण । तवसंजमेण जुत्तो, सो पावइ निज्जरं विउलं ॥२०८॥ अर्थ - यह निर्मल उज्वल श्री सिद्धचक्रको जो पुरुष उज्वल ध्यान व्यापारसे ध्यावे वह पुरुष विपुल नाम विस्तीर्ण निर्जरा पावे अर्थात् बहुत कर्मका क्षय करे कैसा वह पुरुष तप संयम सहित ऐसा ॥ २०८ ॥ अक्खयसुक्खो मुक्खो, जस्स पसाएण लम्भए तस्स । झाणेणं अन्नाओ, सिद्धीओ हुंति किं चुज्जं ॥ २०९ ॥ अर्थ — अक्षय सुख जिसमें ऐसा मोक्ष श्रीसिद्धचक्र के प्रसादसे प्राणी पाते हैं सिद्धचक्रके ध्यानसे और सिद्धियां होवे इनमें क्या आश्चर्य है ॥ २०९ ॥ एयं च परमतत्तं परमरहस्तं च परममंतं च । परमत्थं परमपयं, पन्नत्तं परमपुरिसेहिं ॥ २१० ॥ अर्थ – यह सिद्धचक्र उत्कृष्ट तत्व है और परम रहस्य गोप्य है और परम मंत्र है परमार्थ है और उत्कृष्ट स्थान है और परमपुरुष तीर्थंकरोंने कहा है | २१० ॥ तत्तो तिजयपसिद्धं, अट्टमहासिद्धिदायगं सुद्धं । सिरिसिद्धचक्कमेयं, आराहह परमभत्तीए ॥ २११ ॥ अर्थ - तिस कारण से अहो भव्यो तीन जगत् में प्रसिद्ध अणिमादि आठ सिद्धियोंका देनेवाला शुद्ध निर्मल ऐसा श्री सिद्धचक्र उत्कृष्ट भक्तिसे आराधन करो अर्थात् सेवना करो ॥ २११ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020724
Book TitleShripal Charitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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