SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ १७ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | तो सा निम्मलकित्ती, हारिजउ अज्ज नरवरिंदस्स | अहवा दिज्जउ काविहु, धूया कुकुले वि संभूया ॥२९॥ अर्थ - तिस कारण से हम यहां आए हैं परन्तु आज राजाकी निर्मल कीर्ति हारीजावे है अथवा कुत्सितकुलमें उत्पन्न भई भी कोई कन्या देओ तब कीर्ति बनी रहेगी ॥ २९ ॥ | पभणेइ नरवरिंदो, दाहिस्सइ तुम्ह कन्नगा एगा । कोकिर हारइ कित्ति, इत्तियमित्तेण कज्जेण ॥३०॥ अर्थ-तब राजा कहे तुमको एक कन्या हम देवेंगे निश्चय इतने कार्यके वास्ते बहुत प्रयलसे कीर्ति उत्पन्न करी जावे है सो कौन हारे ॥ ३० ॥ चिंतेइ मणे राया, कोवानलजलियनिम्मलविवेगो । नियधूयं अरिभूयं तं दाहिस्सामि एयस्स ॥ ३१ ॥ अर्थ - क्रोधाग्निसे जला है निर्मलविवेक जिसका ऐसा राजा विचारे क्या विचारे सो कहते हैं मैं शत्रुके जैसी अपनी कन्याको इस कोढ़ियेको दूंगा ॥ ३१ ॥ सहसा बलिऊण तओ, नियआवासंमि आगओ राया। बुल्लावइ तं मयणा, सुंदरिनामं नियं धूयं ॥३२॥ अर्थ - अकस्मात् उसी ठिकाने से पीछा पलटके राजा अपने प्रासादमें आके मदनसुंदरी अपनी पुत्रीको बुलाके ॥ ३२ ॥ ! हुं अज्जवि जइ मन्नसि, मज्झपसायस्स संभवं सुक्खं । ता उत्तमं वरं ते, परिणाविय देमि भूरिधणं ॥ ३३ ॥ For Private and Personal Use Only भाषाटीकासहितम्. ॥ १७ ॥
SR No.020724
Book TitleShripal Charitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy