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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बाहिरमभितरयं, बारसभेयं जहत्तरगुणं । वन्निज्जइ जिणसमए, तं तवपयमेस वंदामि ॥१२९०॥ | अर्थ-जो तप जैनसिद्धान्तमें ६ वाह्य ६ अभ्यन्तर बारह भेद वर्णन किया जावे है यथोत्तर अधिक २ गुण हैं दजिसमें ऐसे तप पदको मैं नमस्कार करूं ॥ १२९० ॥ . तब्भवसिद्धिं जाणंतएहि, सिरिरिसहनाहपमुहहिं । तित्थयरेहिं कयं जं, तं तवपयमेस वदामि ॥१२९१॥ | अर्थ-श्रीऋषभदेव स्वामीप्रमुख तीर्थंकरोंने उसी भवमें अपनी मुक्ति जानते हुए भी जो तप अंगीकार किया उस अर्थ-भीनमस्कार करूं ॥ १२९१ ॥ विनिकायाणं। जायइ खाय होवे है उस त .65405ASHISHASHISHISHISAISTUS जेण खमासहिएणं कएण, कम्माणमवि निकायाणं। जायइ खओखणेणं, तंतवपयमेस वंदामि ॥१२९२॥ ___ अर्थ-क्षमा सहित जिस तपके करनेसे निकाचित कर्मोका क्षणेकमें क्षय होवे है उस तपपदको मैं नमस्कार करूं ॥ १२९२॥ जेणंचिय जलणेणव, जीवसुवन्नाओकम्मकिट्टाई।फिति तक्खणं चिय, तंतवपयमेस वंदामि ॥१२९३॥ __ अर्थ-अग्निके जैसा जिस तपसे जीवरूपसोनेसे कर्मरूप कीटा कठिनतर मैल तत् कालही दूर होवे है उस तप |पदको मैं नमस्कार करूं ॥ १२९३ ॥ जस्स पसाएण धुवं, हवंति नाणाविहाउलद्धीओ।आमोसहि पमुहाओ तं तवपयमेस वंदामि ॥१२९४ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020724
Book TitleShripal Charitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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