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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपालचरितम् ॥१५५॥ 1964***SAASAASA जे दंसणनाणचरित्त,-रूवरयणत्तएण इक्केण । साहति मुक्खमग्गं, ते सवे साहुणो वंदे ॥ १२५४ ॥ भाषाटीका__ अर्थ-जे दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप तीनरत्नसे मोक्षमार्ग साधे कैसा दर्शनादि तीन एकीभाव प्राप्तभया अर्थात् |सहितम्. | मिला हुआ तीनोंके एकत्व विना मोक्ष मार्ग नहीं सिद्ध होता है उन सर्व साधुवोंको मैं नमस्कार करूं ॥ १२५४ ॥ गयदुविहदुट्ठझाणा, जे झाइय धम्मसुक्कझाणा य । सिक्खंति दुविह सिक्खं, ते सत्वे साहणो वंदे १२५५ ___ अर्थ-गया आर्त रौद्र दो प्रकारका दुष्टध्यान जिन्होंसे और धर्मध्यान शुक्लध्यान ध्याया जिन्होंने ऐसे दो प्रकारकी शिक्षा ग्रहण आसेवना रूप सीखे उन सर्व साधुओंको नमस्कार होवे ॥ १२५५ ॥ | गुत्तित्तएण गुत्ता, तिसल्लरहिया तिगारवविमुक्का । जे पालयंति तिपइं, ते सत्वे साहुणो वंदे ॥१२५६ ॥ __ अर्थ-तीन गुप्ति मन, वचन, काय गुप्ति लक्षण करके गुप्त अर्थात् गुप्तिवंत और मायाशल्य १ नियाणाशल्य २ मिथ्यादर्शनशल्य ३ इन्हों करके रहित ऋद्धि १ रस २ शाता ३ इन तीन गौरवोंसे रहित होके त्रिपदी ज्ञान दर्शन चारित्ररूप पालते हैं उन सर्व साधुओंको मैं नमस्कार करूं ॥१२५६ ।। चउविहविगहविरत्ता, जे चउविहकसायपरिचत्ता। चउहा दिसंति धम्म, ते सवे साहुणो वंदे ॥१२५७॥18॥१५५॥ । अर्थ-चार प्रकारकी विकथा राजकथा १ देशकथा २ स्त्रीकथा ३ भोजनकथा ४ इन्होंसे रहित और अनन्तानु- 61-62 For Private and Personal Use Only
SR No.020724
Book TitleShripal Charitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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