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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपालचरितम् ॥१४८॥ ॐ अर्थ-इत्यादि बहुत विस्तार सहित उज्जवणा मंडवाके राजा श्रीपाल विस्तार विधिसे स्नात्रमहोत्सव करे करावे ॥१॥||भाषाटीकाॐ|विहियाए पूयाए, अट्ठपयाराइ मंगलावसरे । संघेण तिलयमाला, मंगलकरणं कयं रन्नो ॥ १२०२॥ | सहितम्8. अर्थ-अष्ट प्रकारी पूजाकरी बाद मंगलके अवसरमें संघने राजा श्रीपालके तिलक किया माला पहराई यह मंगलहू | किया तदनंतर आरती करके और चैत्यवंदन करे सो कहते हैं ॥ १२०२ ॥ तओ, जो धुरि सिरिअरिहंतमूलदढपीढपइटिओ, सिद्धसूरिउवज्झायसाहु चउसाहगरिट्टिओ, दंसणनाणचरित्ततवहिं पडिसाहहिं सुंदरु। तत्तक्खरसरवग्गलद्धि गुरुपयदलडंबरु, दिसिवालजक्खजक्खिणिपमुह, सुरकुसुमेहिं अलंकिओ।सो सिद्धचक्कगुरुकप्पतरु, अम्हह मणवंछिअ दिअओ ॥१२०३॥ | अर्थ-श्रीसिद्धचक्ररूप महान कल्पवृक्ष आदिमे अरहंतही जो मूल दृढपीठ उसमें प्रतिष्ठित और सिद्ध १ आचार्य २ उपाध्याय ३ साधु ४ इन चार शाखाओं करके बहुत बड़ा और दर्शन १ ज्ञान २ चारित्र ३ तप ४ रूप प्रतिशाखा करके सुंदर और तत्वाक्षर ओंकारादिक स्वरअवर्णादिक वर्ग अवर्गादिक ४८ अड़तालीस लब्धिपद अर्हत् पादुका गुरु पादुका यही है पत्रोंका आडंवर जिसके और दिक्पाल यक्ष यक्षिणी प्रमुख देव पुष्पोंसे शोभित श्री सिद्धचक्ररूप ॥१४८॥ महान् कल्पवृक्ष हमको मनोवांछित देवो ॥ १२०३ ॥ BCIRCREGAONKAR US For Private and Personal Use Only
SR No.020724
Book TitleShripal Charitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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