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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपा.च.१८ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पिंगलनयणं च पलोइऊण, लोया भणति भो खुज्ज । कज्जेण केण पत्तो, तुमंति? तत्तो भणइ सोऽवि ८१७ अर्थ — और पीले नेत्र जिसके ऐसे उस कूबड़ेको देखके लोक कहे अहो कुब्ज तैं किस कार्यके लिए यहां आया है। तब कुबड़ा कहे क्या कहे सो कहते हैं ।। ८१७ ॥ | जेण कज्जेण तुब्भे, सधे अच्छेह आगया इत्थ । तेणं चिय कज्जेणं, अहयंपि समागओ एसो ॥ ८१८ ॥ अर्थ - जिस कार्य के लिए तुम यहां आके रहे हो उसी प्रयोजनके वास्ते मैं भी आया हुं ॥ ८१८ ॥ हडहड हसति सबे, अहो इमो एरिसो सरूवोवि । जइ न वरिस्सइ नरवर, धूया तो सा कहं होही ॥ ८१९ ॥ अर्थ - यह कुलका वचन सुनके सब राजकुमरादिक हड २ शब्द करके हसे और इस प्रकार वोलेकि ऐसा स्वरूप वाला तैं है जो राजपुत्री तेरेको नहीं वरेगी तो कैसा होगा ॥ ८१९ ॥ इत्थंतरंमि नरवरधूया, वरनरविमाणमारूढा । खीरोदगवरवत्था, मुत्ताहलनिम्मलाहरणा ॥ ८२० ॥ अर्थ – इस अवसरमें उज्ज्वल रवीरोदक प्रधान वस्त्र पहरे हैं जिसने मोतियों के निर्मल हारादिआभरण पहरे हुए है जिसने ऐसी राजकुमारी पालकीमें बैठके ।। ८२० ॥ करकलियविमलमाला समागया मूलमंडवे जाव । ता सहसच्चिय कुमरं, सहावरूवं पलोएइ ॥ ८२१ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020724
Book TitleShripal Charitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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