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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir षणसे तुल्यपना बतलाते हैं द्विजिव्हा सर्प दूध पिलानेवालेको भी मारता है वैसा दुष्ट पुरुषभी जो लालनेवाला उसकाही नुकसान करे दोनों कैसे मलीन, सर्प वर्णसे मलीन होवे, और दुष्ट पुरुष भावसे मलीन होता है और कुटिल, सर्प पक्षमें वक्रगति और दुष्ट पुरुषके पक्षमें वक्र चेष्टा जिन्होंकी ऐसे और परछिद्रोंमें रक्त दुष्टके पक्षमें दूसरोंका दोष कहने में रक्त सर्प पक्षमें औरोंके मूषक वगेरेहके बिलोंमें रक्त और भयानक दांत जिव्हासे दूसरोंका घात करनेवाला ॥ ६२० ॥ पयडियकुसीलयंगा, कयकडुयमुहा य अवगणियणेहा । मलिणा कढण सहावा, तावं न कुणंति कस्स खला ॥ ६२१ ॥ अर्थ-अब ज्वरकी उपमा करके दुर्जनका स्वरूप कहते है दुर्जनपुरुष ज्वरके जैसा किसको संताप नहीं करे अपितु सबको करे कैसे हैं दोनों प्रगट किया है कुत्सित स्वभाव शरीरमें जिन्होंने नहीं गिना है स्नेह प्रेम जिन्होंने ज्वर पक्षमें स्नेह घृतादिक खल पक्षमें स्नेह प्रेम उन्होंको नहीं गिणने वाले तथा मलिन स्वभाववाले दोनों दुर्जन भावसे मैले होवे है अतएव इसी कारणसे दोनो भी कठिन स्वभाववाले ज्वर पक्षमें देहको कठिन करनेवाला ॥ ६२१ ॥ विरसं भसंति सविसं डसंति, जे छन्नमिंति सुंघंता । ते कस्स लद्धछिद्दा, दुज्जणभसणा सुहं दिति ॥ ६२२॥ अर्थ — अब श्वानकी उपमा करके दुर्जनका स्वरूप दिखाते हैं वह दुर्जन भुसनेवाले स्वानके जैसे छिद्रपाके अर्थात् छलपाके किसको सुख देवे अपितु किसीको नहीं देवे कैसे वह सो कहते हैं गया रस मधुरात्मक जिन्होंसे विरल जैसा For Private and Personal Use Only
SR No.020724
Book TitleShripal Charitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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