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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ ६७ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - तदनंतर सबलोग अत्यन्त संतुष्टमान हुआ विचारे किसकी यह वाणी है और कब वह पुरुष आवेगा और कब जिन मंदिरका दरवाजा खुलेगा ऐसा विचारोंके अनन्तर और वाणी भई ॥ ५२३ ॥ सिरिरिसहेसर ओलगिणि, हउं चक्केसरिदेवि । मासब्भंतार तसु नरह, आविसु निच्छइ लेवि ॥ ५२४ ॥ अर्थ - श्री ऋषभदेवस्वामीकी सेवाकरनेवाली मैं चक्रेश्वरी देवी हूं १ महीने में उस पुरुषको लेके निश्चय आऊंगी २२४ इत्थंतरंमि जायं, विहाणयं वज्जियाई तूराई । रायावि सपरिवारो, समुट्ठिओ नियगिहं पत्तो ॥ ५२५ ॥ 1 अर्थ - इस अवसर में प्रभातहोगया प्रभातयोग्य वादित्र वजे राजाभी परिवारसहित अपने घरगए ॥ ५२५ ॥ तत्तो कयगिहपडिमा - पूयाइविहीहिं पारणं विहियं । सवत्थवि वित्थरया, सावत्ता लोयमज्झमि ॥२६॥ अर्थ - तदनंतर घरदेरासर में जिनप्रतिमाकी विधिः से पूजाकर के पुत्रीसहित राजाने तीनउपवासका पारणाकिया वह वार्ता सबलोक में प्रसिद्ध भई है ।। ५२६ ॥ आवंति तओ लोया, सपमोया जिणहरस्स दारंमि । अणउग्घडिए तंमिवि, पुणोवि गच्छंति सविसाया २७ अर्थ — तदनंतरलोक हर्षसहित जिनमंदिर जावे मंदिरका दरवज्जा बन्ध देखके विषादसहित हुआ पीछा अपने ठिकाने जावे ।। ५२७ ॥ तं जिणहरस्स दारं, केणवि नो सक्कियं उघाडेउं । किंतु कओ बहुएहिंवि उग्घाडो निययकम्माणं २८ For Private and Personal Use Only भाषाटीकासहितम् ॥ ६७ ॥
SR No.020724
Book TitleShripal Charitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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