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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१३८) रसी नगरी थया, चउकल्याण विशेष ॥ ४॥ आषाढसित आठमे, सिववधु झाल्यो हाथ, जिनकृपाचंदररिसदा, सेवोजगनानाथ ॥५॥ इति पारसनाथ चैत्यवंदन ॥ १५ ॥ - वीरजिनेसरजगधणी, त्रिशलानो जायो, आषाढशुदिषट्ठी प्रभु, देवानंदा उदरे आयो॥१॥ आश्विनवदि त्रयोदशी, हरणेगमेषी ईश, त्रिशलाउदरे संक्रम्या, चवदे स्वप्न लहीश ॥२॥ चैत्रशुक्लत्रयोदशी, जन्मथयोसुखकार, चौसठइंद्राव्या तिहां, स्नात्रकरे विधिसार ॥३॥ वर्धमान नाम थापीयो, वृद्धितणे अनुमान, मिगसरवदि दशमीलीयो, संजम सुखनी खान ॥ ४॥ वैशाख सुदि दशमीदिने, केवल पाम्योसार, पावापुरी मुगते गया, दीवालीसुखकार ॥५॥ इम कल्याणक प्रभुतणा, आराधे नरनार, जिनकृपाचंद्र मूरि कहे, पामे भवनो पार ॥६॥ इति श्रीमहावीर स्वामी चैत्यवंदनं ॥ १६ ॥ ॥अथ नव पद वृद्ध स्तवनं ॥ (दुहा ) अरिहंतादिकपदतणो । ध्यानधरि मनमांहि, सिद्ध चक्रगुणवरणवू; त्रिकरणधरिउच्छाहि ॥ १ ॥ राजग्रहीनयरी भली । समवसर्या गणधार ॥ सिद्धचक्रगुणवरणव्या, तेसुणजो अधिकार ॥ २॥ ( ढालपहली) जगजीवनजगबालहो ॥ एदेशी, श्रीगौतमगणेसरु । पभणे भविसुखकार लालरे । श्रेणिक पमुहा सांभले । उत्तमधर्मविचार ला० श्री० ॥ ३॥ दुर्लभ मानुष्यभव लही। सेवो श्रीजिनधर्म ला० दानादिकचउभेदथी। आराधिलहोशर्म ला० श्री० ॥ ४ ॥ भावविनाजे दानछे । For Private And Personal Use Only
SR No.020721
Book TitleShravak Nitya Krutya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinkrupachandrasuri
PublisherNirnaysagar Press
Publication Year1923
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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