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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१३२) पुन्यभंडारभरिजै ॥ छहरीपाली जेनरमेटे, संघपतिथइ सहु दुख मेटे, भववनमे नवि लेटे ॥ वारहपूनिम पर्वकहीजै, चारित्रतिथीशास्त्रमांहि लहीजै, चक्रेसरीसांनिधकीजै ॥ श्रीजिनकृपाचंद्रसूरिराजै, खरतरगच्छ जिनआणाछाजै, सुखसंपदा सुसमाजै ॥ ४ ॥ इति पुनम थुइ० ॥ ॥ अथ बीजनु चैत्यवंदनं लिख्यते ॥१॥ द्विविध धर्म जिनवर कह्यो । साधुश्रावकनो जाण । शिक्षा दोय सेवो सदा । ग्रहणासेवन आण ॥ १॥ धर्म शुक्ल दुग ध्यान ने, ध्यावो चतुरसुजाण । आरौिद्र दोयपरिहरो । त्रिकरण शुचि महिरान ॥२॥ अभिनंदन जनम्या प्रभु । सुमति अर चविया । वासु पूज्य थया केवली । शीतल शिव सुख वरिया ॥३॥ सीमंधर युगमंधरा । वीसविहरमान होय । राग द्वेषनो त्याग करी । निश्चय व्यवहार जोय ॥४॥ बीजदिवस आराधिये ए । ज्ञानतिथीसुविहाण । सूरिकृपाचंद्रसेवतां । तपथीकोड' कल्याण ॥ ५॥ ॥ इतिबीजतिथीनो चैत्यवंदन संपूर्णम् ॥ ॥ अथ श्रीपंचमी चैत्यवंदनं ॥२॥ पांच ज्ञान प्रगटायवा । पंचमी तप सुप्रधान । आराधो भवि इकमने । प्रकटे ज्ञान निधान ॥ १॥ अवग्रहादिक जाणिये, मति अठाविश सार, चवदवीशभेद श्रुततणा । अवधि छ असंख्य प्रकार ॥२॥ मनःपर्यव दुगभेदछे । केवलसकलप्रकाश । लोकालोक स्वरूपनो । ज्ञायक ज्ञान एखास ॥३॥ साराधक ज्ञानने । भाख्यो श्री जगदीश | सासोवासमां कर्मनो । क्षयकरे For Private And Personal Use Only
SR No.020721
Book TitleShravak Nitya Krutya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinkrupachandrasuri
PublisherNirnaysagar Press
Publication Year1923
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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