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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ऐर्यापथिक-सूत्र ६५ की आत्मा को ऊँचा उठाता है, वहाँ दण्ड उसे नीचे गिराता है । सामाजिक व्यवस्था में दण्ड से भले ही कुछ लाभ हो । परन्तु श्राध्यात्मिक क्षेत्र में तो उसका कुछ भी मूल्य नहीं है । यहाँ तो इच्छापूर्वक प्रसन्नता के साथ गुरुदेव के समक्ष पहले पापों की आलोचना करना और फिर उसका प्रतिक्रमण करना, जीवन की पवित्रता का मार्ग है । हाँ, जिन दूसरे पाठों में 'इच्छामि पडिक्कमिङ' न होकर केवल 'पडिक्कमामि' है, वहाँ पर भी 'पडिक्कमामि' क्रिया के गर्भ में 'इच्छामि' अवश्य रहा हुआ है । पडिक्कमामि का भावार्थ यही है कि 'मैं प्रतिक्रमण करता हूँ, अर्थात् मैं प्रतिक्रमण करना चाहता हूँ, अतएव गुरुदेव ! आज्ञा दीजिए ।' 'गमागमणे' से लेकर 'जीवियाओ ववरोविया' तक का अंश आलोचना -सूत्र है । श्रालोचना का अर्थ है - गुरुदेव के समक्ष स्पष्ट हृदय सेव्यौरेवार अपराध का प्रकटीकरण, अर्थात् प्रकट करना । यह अंश भी कितना महत्त्वपूर्ण है ! अपने आप अपनी भूल को स्वीकार करना, साधारण बात नहीं है । साहसी वीर पुरुष ही ऐसा कर सकते हैं । जब लज्जा और अहंकार के दुर्भाव को छोड़ा जाता है, प्रतिष्ठा के भय को भी. दूर हटा दिया जाता है, आत्मशुद्धि का पवित्र भाव हृदय के करण करण में उभर आता है, तब कहीं आलोचना होती है । आलोचना का साधना के क्षेत्र में बहुत बड़ा महत्त्व है । इसके आगे 'तस्स मिच्छामि दुक्कड' का अन्तिम अंश श्राता है । यह अंश प्रतिक्रमण सूत्र कहलाता है । प्रतिक्रमण का अर्थ है'मिच्छामि दुक्कड' देना, अपराध के लिए क्षमा माँग लेना । जैनधर्म में आलोचना और प्रतिक्रमण, दश प्रायश्चित्त में से प्रथम के दो नायश्चित्त माने गए हैं । इसीप्रकार अन्य प्रतिक्रमण के पाठों में भी उक्त तीन अंशों का परिज्ञान कर लेना चाहिए । For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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