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प्रकाशकीय निवेदन
साहित्य समाज का दर्पण होता है । दर्पण का कार्य वस्तु का वास्तविक रूप में दर्शन कराना है । मनुष्य जैसा होगा, उसका प्रतिबिम्ब भी दर्पण में वैसा ही होगा । साहित्य रूपी दर्पण में समाज अपना यथार्थं दर्शन पा लेता है । वह जान सकता है कि मैं क्या हूँ ? मैंने अभी तक क्या प्रगति की है ? मेरा रूप सुरूप है या कुरूप ?
साहित्य की महत्ता और विशालता पर ही समाज की उपयोगिता आधारित रहती है | साहित्य समाज, धर्म और संस्कृति का प्राणाधार है | साहित्य की उपेक्षा करके समाज, धर्म और संस्कृति जीवित नहीं रह सकती । विना प्राण के शरीर जैसे शव कहलाता है, उसी प्रकार साहित्य शून्य समाज की भी स्थिति है । सत्साहित्य समाज के जीवित होने का चिह्न है ।
इसी शुभ लक्ष्य की पूर्ति के लिए ज्ञान पीठ ने मौलिक साहित्य प्रकाशित करने का दृढ़ संकल्प किया है । स्वल्प काल में ही उसने अपनी उपयोगिता सिद्ध करने में सफलता प्राप्त की है और समाज को ठोस साहित्य प्रदान करके जनता की चौद्धिक चेतना को स्फूर्ति एवं जागृति प्रदान की है । ज्ञानपीठ के प्रकाशनों की सर्वप्रियता का अनुमान पाठकगण मासिक, पाक्षिक और साप्ताहिक पत्रों की समालोचनाओं पर से लगा सकते हैं ।
उन्हीं प्रकाशनों की श्रृङ्खला में आज हम श्रद्वेष उपाध्यायजी का श्रमण सूत्र लेकर उपस्थित हो रहे हैं । श्रमण सूत्र क्या है, उसका क्या महत्त्व है, और उस महत्त्व के प्रकटीकरण में उपाध्यायश्रीजी ने क्या कुछ
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