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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir संक्षिप्त प्रतिक्रमण-सूत्र ४६ विचार में होंगे, यह क्या उलटा अर्थ है ! कषायों का खण्डन तो इष्ट ही होता है, फिर अतिचार कैसा ? शंका सर्वथा उचित है । अतएव यहाँ 'कषाय' शब्द लक्षणा के द्वारा कषाय-निवृत्ति रूप माना जाता है। अतएव कषाय-मिवृत्ति में यदि कहीं दुर्बलता की हो तो उस अतिचार की शुद्धि की जाती है। इसी प्रकार षड्जीवनिकाय की भी षड्जीवनिकाय के रक्षण में लक्षणा है। सात पिण्डेषणा दोष-रहित शुद्ध प्रासुक अन्न जल ग्रहण करना 'एषणा' है। इसके दो भेद हैं--विण्डैषणा और पानैषणा | आहार ग्रहण करने को पिण्डैषणा कहते हैं, और पानी ग्रहण करने को पानपणा । पिण्डषणा के सात प्रकार हैं: (१) असंसट्टा = प्रसंसृष्टा-देय भोजन से विना सने हुए हाथ तथा पात्र से आहार लेना। (२) संसट्ठा - संसृष्टा-देय भोजन से सने हुए हाथ तथा पात्र से आहार लेना। (३) उद्धा उद्ध ता-बटलोई से थाली श्रादि में गृहस्थ ने अपने लिए जो भोजन निकाल रखा हो, वह लेना । (४) अप्पलेवा=अल्पलेपा-जिसमें चिकनाहट न हो, अतएव लेप न लग सके, इस प्रकार के भुने हुए चणे श्रादि ग्रहण करना । ५) अवग्गहीश्रा = अवगृहीता-भोजनकाल के समय भोजनकर्ता ने भोजनार्थं थाली आदि में जो भोजन परोस रक्खा हो, किन्तु अभी भोजन शुरू न किया हो वह आहार लेना। (६) पग्गहीश्रा = प्रगृहीता-थाली आदि में परोसने के लिए चम्मच श्रादि से निकाला हुआ, किन्तु थाली में न डाला हुआ, बीच में ही ग्रहण कर लेना । अथवा थाली में भोजन कर्ता के द्वारा हाथ आदि से प्रथम बार तो प्रगृहीत हो चुका हो, पर दूसरी बार पास लेने के कारण झूठा न हुआ हो, वह आहार लेना। For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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