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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir निर्विकृतिक-सूत्र '३३५ ही अभिग्रह का पालन कर सकते हैं । अतएव साधारण साधकों को अतिसाहस के फेर में पड़ने से बचना चाहिए। जैन इतिहास के विद्यार्थी जानते हैं कि एक साधु ने सिंहकेसरिया मोदकों का अभिग्रह कर लिया था और जब वह अभिग्रह पूर्ण न हुआ तो पागल होकर दिनरात का कुछ भी विचार न रखकर पात्र लिए घूमने लगा। कल्पसूत्र की टीकात्रों में उक्त उदाहरण प्राता है । अतः अभिग्रह करते समय अपनी शक्ति और अशक्ति का विचार अवश्य कर लेना चाहिए । (१०) 'निर्विकृतिक-सूत्र विगइअोर पच्चक्खामि, अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, लेवालेवेणं, गिहत्थसंसिट्ठणं, उक्खित्तविवेगेणं, पडुच्चमक्खिएणं, पारिट्ठावणियागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं, वोसिरामि । . १ प्राकृत भाषा का मूल शब्द 'निविगइयं' है । श्राचार्य सिद्धसेन ने इसके दो संस्कृतरूपान्तर किए हैं.निर्विकृतिक और निर्विगतिक । श्राचार्य श्री घृतादि को विकृतिहेतुक होने से विकृति और विगतिहेतुक होने से विगति भी कहते हैं। जो प्रत्याख्यान विकृति से रहित हो वह निर्विकृतिक एवं निर्विगतिक कहलाता है। 'तत्र मनसो विकृतिहेतुत्वाद् विगतिहेतुत्वाद् वा विकृतयो विगतयो वा, निर्गता विकृतयो विगतयो वा यत्र तन्निविकृतिकं निविगतिकं वा प्रत्याख्याति ।'--प्रवचन सारोद्वार वृत्ति प्रत्याख्यान द्वार | २ प्रवचन सारोद्धार में 'विगइनो' के स्थान में "निठिवगइयं' पाठ है। For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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