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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्राचाम्ल-सूत्र ३२७ नहीं होता। परन्तु यदि विकृति द्रव हो, उठाने की स्थिति में न हो तो वह वस्तु ग्राह्य नहीं है । ऐसी वस्तु का भोजन करने से प्राचाम्ल व्रत का भंग माना जाता है। 'शुष्कौदनादिभक्ते पतितपूर्व स्थाचामाम्लप्रत्याख्यानवतामयोग्यस्य अवविकृत्यादिद्रव्यस्य उत्क्षिप्तस्यउद्धतस्य विवेको-निःशेषतया त्यागः उत्तिप्तविवेकस्तस्मादन्यत्र, भोक्रव्यद्रव्यस्याभोक्रव्यद्रव्य स्पर्शनाऽपि न भङ्ग इत्यर्थः । यत्तत्क्षप्त न शक्यते तस्य भोजने भङ्ग एव ।"-प्रवचन सारोद्धार वृत्ति । (३) गृहस्थसंसृष्ट-घृत अथवा तैल श्रादि विकृति से छोंके हुए कुल्माष ग्रादि लेना, गृहस्थसंसृष्ट अागार है । अथवा गृहस्थ ने अपने लिए जिस सेटी आदि खाद्य वस्तु पर घृतादि लगा रक्खा हो, वह ग्रहण करना भी गृहस्थसंसृष्ट अागार है । उक्त प्रागार में यह ध्यान में रखने की बात है कि यदि विकृति का अंश स्वल्प हो, तब तो व्रत भंग नहीं होता। परन्तु विकृति यदि अधिक मात्रा में हो तो वह ग्रहण. करलेने से व्रत भंग का निमित्त बनती है । प्रवचन सारोद्धार वृत्ति के रचयिता प्राचार्य सिद्धसेन, घृतादि विकृति से लिस पात्र के द्वारा प्राचाम्लयोग्य वस्तु के ग्रहण करने को गृहस्थसंसृष्ट कहते हैं । 'विकृत्या संसृष्टभाजनेन हि दीयमानं भक्रमकल्पनीयद्रव्यमिश्रं भवति तद् भुञ्जान त्यापि न भङ्ग इत्यर्थः, यदि अकल्प्यद्रव्यरसो बहुन ज्ञायते ।'-प्रवचन सारोद्धार वृत्ति, प्रत्याख्यान द्वार । - कुछ प्राचार्यों की मान्यता है कि लेपालेप, उरिक्षतविवेक, गृहस्थसंसूट और पारिष्ठापनिकागार-~-ये चार भागार साधु के लिए ही हैं, गृहस्थ के लिए नहीं। For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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