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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 6 ३१४ श्रमण-सूत्र पौरुषी के ही श्रागार हैं, सातवाँ श्रागार 'महत्तराकार' है । महत्तराकार का अर्थ है - विशेष निर्जरा आदि को ध्यान में रखकर रोगी आदि की सेवा के लिए अथवा श्रमण संघ के किसी अन्य महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए गुरुदेव आदि महत्तर पुरुष की आज्ञा पाकर निश्चित समय के पहले ही प्रत्याख्यान पार लेना । श्राचार्य सिद्धसेन इस सम्बन्ध में कितना सुन्दर स्पष्टीकरण करते हैं- महत्तरं वशाल्लभ्यनिर्जरापे तया बृहत्तरनिर्जराला हेतुभूतं, पुरुषान्तरे साधयितुमशक्यं ग्लानचैत्यसंघादि प्रयोजनं तदेव श्राकारः --- प्रत्याख्यानापवादो महतराकारः । " आचार्य नमि भी प्रतिक्रमण सूत्र वृत्ति में लिखते हैं- "तिशयेन महान् महत्तर प्राचार्यादिस्तस्य वचनेन मर्यादया करणं महत्तराकारो, यथा केनापि साधुना भक्तं प्रत्याख्यातं, तत कुल-गण-संघादि प्रयोजनमनन्यसाध्यमुत्पन्नं, तत्र चासौ महत्तरैराचार्याचैर्नियुक्रः, तत यदि शक्नोति तथैव कनु तदा करोति; अथ } न तदा महत्तरका देशेन भुञ्जानस्य न भङ्गः इति ।" " पाठक महत्तराकार के आगार पर जरा गंभीरता से विचार करें । इस आगार में कितना अधिक सेवाभाव को महत्त्व दिया गया है ? तपश्चरण करते हुए यदि अचानक ही किसी रोगी यादि की सेवा का महत्त्वपूर्ण कार्य आ जाय तो व्रत को बीच में ही समाप्त कर सेवा कार्य करने का विधान है । यदि तपस्वी सशक्त हो, फलतः तप करते हुए भी सेवा कर सके तो बात दूसरी है | परन्तु यदि तपस्वी समर्थ न हो तो उसे तप को बीच में ही छोड़कर, यथावसर भोजन करके सेवा कार्य में संलग्न हो जाना चाहिए । तप के फेर में पड़कर सेवा के प्रति उपेक्षा कर देना, जैनधर्म की दृष्टि में क्षम्य नहीं है । सेवा तप से भी महान् है । अनशन आदि बहिरंग तप है तो सेवा अन्तरंग तप है । बहिरंग की अपेक्षा अन्तरंग तप महत्तर है । 'प्रसिद्ध बहिरङ्गमन्तरङ्ग " श्राचार्य हरिभद्र ने आवश्यक सूत्र की शिष्यहिता वृत्ति में, श्राचार्य जिनदास की आवश्यक चूर्णि के आधार पर लिखा है : Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir For Private And Personal ―― - प्रत्यास्यानपालन
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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