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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पौरुषी सूत्र ३०६ घटते-घटते अपने शरीर प्रमाण लंबी रह जाती है। इसी भाव को लेकर पौरुषी शब्द प्रहर परिमित काल विशेष के अर्थ में लक्षणा के द्वारा रूढ़ हो गया है। साधक कितना ही सावधान हो; परन्तु अाखिर वह एक साधारण छद्मस्थ व्यक्ति है। अतः सावधान होते हुए भी बहुत बार व्रत-पालन में भूल हो जाया करती है। प्रत्याख्यान की स्मृति न रहने से अथवा अन्य किसी विशेष कारण से व्रतपालन में बाधा होने की संभावना है। ऐसी स्थिति में व्रत खण्डित न हो, इस बात को ध्यान में रखकर प्रत्येक प्रत्याख्यान में पहले से ही संभावित दोषों का श्रागार, प्रतिज्ञा लेते समय ही रख लिया जाता है । पोरिसी में इस प्रकार के छह श्रागार हैं : (.) अनाभोग-प्रत्यारख्यान की विस्मृति हो जाने से भोजन कर लेना। (२) सहसाकार---अकस्मात् जल आदि का मुख में चले जाना। (३) प्रच्छन्नकाल-बादल अथवा आँधी आदि के कारण सूर्य के ढंक जाने से पोरिसी पूर्ण हो जाने की भ्रान्ति हो जाना । (४) दिशामोह-पूर्व को पश्चिम समझ कर पोरिसी न आने पर भी सूर्य के ऊँचा चढ़ आने की भ्रान्ति से अशनादि सेवन कर लेना । (५) साधुवचन-'पोरिसी भा गई' इस प्रकार किसी प्राप्त पुरुष के कहने पर बिना पोरिसी अाए ही पोरिसी पार लेना । (६) सर्व समाधिप्रत्ययाकार-किसी अाकस्मिक शूल अादि तीव्र सेग की उपशान्ति के लिए औषधि आदि ग्रहण कर लेना । ___'सर्व समाधि प्रत्ययाकार' एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण श्रागार है । जैन संस्कृति का प्राण स्याद्वाद है और वह प्रस्तुत प्रागार पर महत्वपूर्ण प्रकाश डालता है । तप बड़ा है या जीवन ! यह प्रश्न है, जो दार्शनिक क्षेत्र में गंभीर विचार-चर्चा का क्षेत्र रहा है। कुछ दार्शनिक तप को महत्त्व देते हैं तो कुछ जीवन को ? परन्तु जैन दर्शन तप को भी महत्व For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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