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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir द्वादशावर्त गुरुवन्दन-सूत्र इसके उत्तर में गुरुदेव भी 'अणुजाणामि' कह कर आज्ञा देते हैं, यह गुरुदेव की अोर का अाशाप्रदान रूप दूसरा स्थानक है । ___"निसीहि३ अहोर कायं३ कायसंफासं४ । खमणिज्जो५ भे६ किलामो७ । अप्पकिलंता बहुसुभेण भे१० दिवसो११ वइक्कतो१२ ?" ---यह शिष्य की अोर का द्वादशपद रूप शरीरकुशलपृच्छा नामक तीसरा स्थानक है। इसके उत्तर में गुरुदेव 'संथा' कहते हैं | तथा का अर्थ है जैसा तुम कहते हो वैमा ही है, अर्थात् कुशल है। यह गुरुदेव की अोर का तीसरा स्थानक है। ____ इसके अनन्तर "जत्ता १ मे २" कहा जाता है । यह शिष्य की ओर का द्विपदात्मक संयम यात्रा पृच्छा नामक चौथा स्थानक है। उत्तर में गुरुदेव भी 'तुब्भं पि. वट्टइ-युष्माकमपि वर्तते ?' कहते हैं, जिसका अर्थ है-तुम्हारी संयम यात्रा भी निधि चल रही है ? यह गुरुदेव की श्रोर का संयम यात्रा पृच्छा नामक चौथा स्थानक है। ___ इसके बाद " जवणिज च २ मे३' कहा जाता है। यह शिष्य की ओर!का त्रिपदात्मक यापनीय पृन्छा नामक पाँचवाँ स्थानक है । उत्तर में गुरुदेव भी 'एव' कहते हैं, जिसका अर्थ है इन्द्रिय-विजय रूप यापना ठीक तरह चल रही है। यह गुरुदेव की ओर का पाँचवाँ स्थानक है। इसके अनन्तर "खामेमि खमासमणोर. देवसिग्रं३ वहकमं" कहा जाता है। यह शिष्य की. ओर का पदचतुष्टयात्मक-अपराधक्ष्ममणारूप. छठा स्थानक है। __ उत्तर में गुरुदेव भी 'क्षमयामि' कहते हैं, जिसका अर्थं. है मैं भी सारणा वारणा करते समय जो भूलें हुई हों, उसकी क्षमा चाहता हूँ। यह गुरुदेव की अोर का अपराधा क्षामणा रूप छठा स्थानक है । - For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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