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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Yo श्रावश्यक दिग्दर्शन क्या ऊपर के सद्गुणों को देखते हुए कोई भी विचारशील सज्जन · के + गृहस्थ को कुपात्र कह सकता है, उसे ज़हर का लबालब भरा हुआ प्याला बता सकता है ? जैन धर्म में श्रावक को वीतरागदेव श्री तीर्थंकरों का छोटा पुत्र कहा है । क्या भगवान् का छोटा पुत्र होने का महान् गौरव प्राप्त करने बाद भी वह कुपात्र ही रहता है ? क्या आनन्द, कामदेव जैसे देवताओं से भी पथ भ्रष्ट न होने वाले श्रमणोपासक गृहस्थ ज़हर के प्याले थे ? यह भ्रान्त धारणा है । गृहस्थ का जीवन भी धर्ममय हो सकता है, वह भी मोक्ष की ओर प्रगति कर सकता है, कर्म बन्धनों को तोड़ सकता है । सद्गृहस्थ संसार में रहता हैं, परन्तु अनासक्त भाव की ज्योति का प्रकाश अंदर में जगमगाता रहता है । वह कभी-कभी ऐसी दशा में होता है कि कर्म करता हुआ भो कर्मबन्ध नहीं करता है । महिमा सम्यग् ज्ञान की अरु विराग क्रिया करत फल भुंजतें Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir बल जोइ । कर्म बन्ध नहिं होइ ॥ - समयसार नाटक, निर्जराद्वार सूत्रकृतांग सूत्र का दूसरा श्रुतस्कन्ध हमारे सामने है । अविरत, विरत और विरताविरत का कितना सुन्दर विश्लेषण किया गया है। विरताविरत श्रावक की भूमिका है, इसके सम्बन्ध में प्रभु महावीर कहते हैं'सभी पापाचरणों से कुछ निवृत्ति और कुछ अनिवृत्ति होना ही विरतिअविरति है । परन्तु यह प्रारम्भ नोआरम्भ का स्थान भी तथा सब दुःखों का नाश करने वाला मोक्षमार्ग है। यह जीवन भी एकान्त सम्यक् एवं साधु है ।' है For Private And Personal G - 'तत्थणं जा सा सव्वतो विरयाविरई, एस ठाणे आरम्भ नो
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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