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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir द्वादशावर्त गुरुवन्दन सूत्र २६३ गुरुदेव यदि अस्वस्थ या किसी कार्य विशेष में व्याक्षिप्त होते हैं तो' 'तिविहेण'-'त्रिविधेन' ऐसा शब्द कहते हैं, जिसका अर्थ होता है'अक्ग्रह से बाहर रह कर ही सक्षिप्त वन्दन - करना। अतः अवग्रह से बाहर रह कर ही तिवखुत्तो के पाठ के द्वारा संक्षिप्त वंदन कर लेना चाहिए । यदि गुरुदेव स्वस्थ एवं अव्याक्षित होते हैं तो 'छंदेणं'छन्दसा' ऐसा शब्द कहते हैं, जिसका अर्थ होता है-'इच्छानुसार वन्दन करने की सम्मति देना।' गुरुदेव की अोर से उपर्युक्त पद्धति के द्वारा वन्दन करने की अाशा मिल जाने पर, शिष्य, आगे बढ़ कर, अवग्रह क्षेत्र के बाहर, किन्तु पास ही 'अवग्रह प्रवेशाज्ञा याचना' नामक दूसरे स्थान में पुनः अर्द्धावनत होकर नमन करता है और गुरुदेव से 'अणुजाणह मे मिउग्गह'-इस पाठ के द्वारा अवग्रह में प्रवेश करने की प्राज्ञा माँगता है। अाज्ञा मांगने पर गुरुदेव अपनी ओर से 'अणुजाणामि' पद के द्वारा प्राज्ञा प्रदान करते हैं। अाज्ञा मिलने के बाद यथाजात मुद्रा = जनमते समय बालक की अथवा दीक्षा लेने के समय शिष्य की जैसी मुद्रा होती है वैसी दोनों हाथ अंजलिबद्ध कपाल पर रखने की मुद्रा से 'निसीहि'२ पद कहते हुए १ 'त्रिविधेन' का अभिप्राय है कि यह समय अवग्रह में प्रवेश कर द्वादशावर्त वन्दन करने का नहीं है । अतः तीन बार तिक्खुत्तो के पाठ के द्वारा, अवग्रह से बाहर रह कर ही संक्षिप्त वन्दन कर लेना चाहिए । 'त्रिविधेन' शब्द मन, वचन, काय योग की एकाग्रता पर भी प्रकाश डालता है । तीन बार वन्दन, अर्थात् मन, वचन एवं काय योग से वन्दन ! २ 'निसीहि' बाहर के कार्यों से निवृत्त होकर गुरु चरणों में उपस्थित होने रूप नैषधिकी समाचारी का प्रतीक है। इसीलिए प्राचार्य हरिभद्र प्रस्तुत प्रसंग पर कहते हैं-'ततः शिष्यो नैवेधिक्या प्रविश्य ।' अर्थात् शिष्य, अवग्रह में 'निसीहि' कहता हुअा प्रवेश करे। For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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