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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir द्वादशावर्त गुरुवन्दन-सूत्र २८५ यात्रा के द्वारा मोक्ष में पहुँचे हैं और पहुँचेगे । संयमी साधक के लिए जीवन की प्रत्येक शुभ प्रवृत्ति यात्रा है, मोक्ष का मार्ग है । यापनोय 'यात्रा' के समान 'यापनीय' शब्द भी बहुत महत्त्वपूर्ण है । यापन का अर्थ है मन और इन्द्रिय श्रादि पर अधिकार रखना, अर्थात् उनको अपने वश में - नियंत्रण में रखना । मन और इन्द्रियों का अनुपशान्त रहना, अनियंत्रित रहना अकुशलता है, अयापनीयता है । और इनका उपशान्त हो जाना, नियंत्रित हो जाना ही कुशलता है, यापनीयता है । । कुछ हिन्दी टीकाकारों ने, जिनमें पं० सुखलालजी मी हैं, 'जवणिज्जं च भे ?' की व्याख्या करते हुए लिखा है कि 'आपका शरीर मन तथा इन्द्रियों की पीड़ा से रहित है हमने भी यही अर्थ लिखा है । श्राचार्य हरिभद्र ने भी इस सम्बन्ध में कहा है- 'यापनीयं चेन्द्रियनोइन्द्रियोपशम्मादिना प्रकारेण भवतां ? शरीरमिति गम्यते ।' यहाँ इन्द्रिय से इन्द्रिय और नोइन्द्रिय से मन समझा गया है और ऊपर के अर्थ की कल्पना की गई है । परन्तु भगवती सूत्र में यापनीय का निरूपण करते हुए कहा है कि-यापनीय के दो प्रकार हैं इन्द्रिय यापनीय और नोइन्द्रिय यापनीय । पाँचों इन्द्रियों का निरुपहत रूप से अपने वश में होना, इन्द्रिय-यापनीयता है । और क्रोधादि कषायों का उच्छिन्न होना, उदय न होना, उपशान्त हो जाना, नोइन्द्रिय यापनीयता है ! - जवणिज्जे दुविहे पद्मन्त े, तंजा - इंदियजवणिज्जे य नोइन्द्रियजवसज्जे यः । से किं तं इंदियजवणिज्जे ? जं मे सोइंदिय-चविखदियघाशिंदिय जिभिदिय - फासिंदियाई निरुवहयाई वसे वह ति, सेत्त' इंदियजवणिज्जं । For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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