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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २६०. www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्रमण-सूत्र अञ्जलिबद्ध दोनों हाथ जोड़कर समस्त पूज्य मुनिसंघ से मैं अपने सब अपराधों की क्षमा चाहता हूँ और मैं भी उनके प्रति क्षमाभाव करता हूँ || २ || मैं सब जीवों को क्षमा करता हूँ और वे सब जीव भी मुझे क्षमा करें । मेरी सब जीवों के साथ पूर्ण मैत्री = मित्रता है; किसी के साथ भी मेरा वैर-विरोध नहीं है ॥ ३ ॥ विवेचन क्षमा, मनुष्य की सब से बड़ी शक्ति है । मनुष्य की मनुष्यता के पूर्ण दर्शन भगवती क्षमा में ही होते हैं । वह मनुष्य क्या, जो जरा-जरासी बात पर उचल पड़ता हो, लड़ाई-झगड़ा ठानता हो, वैर-विरोध करता हो ? उसमें और पशु में एक आकृति के सिवा और कौन-सा अन्तर रह जाता है ? वैर-विरोध की, क्रोध-द्वेष की वह भयंकर अग्नि है, जो अपने और दूसरों के सभी सद्गुणों को भस्म कर डालती है । क्षमाहीन मनुष्य का शरीर एड़ी से चोटी तक प्रचण्ड क्रोधाग्नि से जल उठता है, नेत्र आग्नेय बन जाते हैं, रक्त गर्म पानी की तरह खौलने लगता है । C क्षमा का अर्थ है- - 'सहनशीलता रखना । किसी के किए अपराध को अन्तहृदय से भी भूल जाना, दूसरों के अनुचित व्यवहार की ओर कुछ भी लक्ष्य न देना; प्रत्युत अपराधी पर अनुराग और प्रेम का मधुर भाव रखना, क्षमा धर्म की उत्कृष्ट विशेषता है । क्षमा के विना. मानवता नप ही नहीं सकती । हिंसा मूर्ति क्षमावीर न स्वयं किसी का शत्रु है और न कोई उसका शत्रु है; न उससे किसी को भय है और न उसको किसी से भय है " यस्मान्नोद्विजते लोको लोकानोद्विजते च यः ।" वह जहाँ कहीं भी रहेगा, प्रेम और स्नेह की साक्षात् मूर्ति बन कर रहेगा । उसके मधुर हास्य में विलक्षण शक्ति का आभास मिलेगा । श्रीयुत शिवव्रतलाल वर्मन के. शब्दों में---" जैसे सूर्य मण्डल से चारों ओर शुभ्र ज्योति की वर्षा होती रहती For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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