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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रतिज्ञा-सूत्र २५३ अब यह नहीं भटकेगा। स्वयं तो क्या भटकेगा, दूसरे अधों को भी भटकने से बचाएगा । सम्यग्दर्शन का प्रकाश ही ऐसा है।" माया-मृा-विवर्जित का अर्थ है-- मायामृग से रहित ।' मायामृषा साधक के लिए बड़ा ही भयंकर पाप है। जैन धर्म में इसे शल्प कहा है । यह साधक के जीवन में यदि एक बार भी प्रवेश कर लेता है तो फिर वह कहीं का नहीं रहता। भूल को छुपाने की वृत्ति पिछले पापों को भी साफ नहीं होने देती पार पागे के लिए अधिकाधिक पापों को निमत्रण देती है । जो साधक झूठ बोल सकता है, झूठ भी वह, जिसके गर्भ में माया रही हुई हो, भला वह क्या साधना करेगा ? माया मृवावादी, साधक नहीं होता, ठग होता है । वह धर्म के नाम पर अधर्म करता है, धर्म का ढोंग रचता है । यह प्रतिक्रमण-सूत्र है। अतः प्रतिक्रमणकर्ता साधक कहता है कि "में श्रमण हूँ। मैंने माया यार मृपावाद का मार्ग छोड़ दिया है। मेरे मन में छुपाने जैसी कोई बात नहीं है। मेरी जीवन-पुस्तक का हरएक पृट खुला है, कोई भी उसे पढ़ सकता है। मैंने साधना पथ पर चलते हुए जो भूले की हैं, गलतियाँ की हैं, मैंने उनको छुपाया नहीं है । जो कुछ दोष थे, साफ-साफ कह दिए हैं । भविष्य में भी में ऐसा ही रहूँगा। पाप छुपना चाहता है, में उसे छुपने नहीं दूं गा । पाप सत्य से चुंधियाता है, अतः असत्य का अाश्रय लेता है, माया के अन्धकार में छुपता है । परन्तु मैं इस सम्बन्ध में बड़ा कठोर हूँ, निर्दय हूँ । न मैं पिछले पायों को छुपने दूंगा, ओर न भविष्य के पानी को । पार पाते हैं माया के द्वार से, मृपावाद के द्वार से । श्रार मैंने इन द्वारों को बंद कर दिया है । अब भविष्य में पाप पाएँ तो किधर से पाएँ ? पिछले पाप भी मायामृषा के प्राश्रय में ही रहते हैं । अस्तु ज्यों ही में भगवान् सत्य के आगे खड़ा होकर पापों की अालोचना करता हूँ, त्यों ही बस पापों में भगदड़ मचजाती है। क्या मजाल, जो एक भी खड़ा रह जाय !" यह है वह उदात्त भावना, जो मायामृपा-विवर्जित की पृष्ट भूमि में रही हुई है । For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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