SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 547
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २४६ श्रमण सूत्र विचारक सहमत नहीं हो सकता। यहाँ प्रतिक्रमण किया जा रहा है. अयोग्य याचरण की प्रालोचना के बाद सयम पालन के लिए प्रण किया जा रहा है, फलतः कहा जा रहा है कि मैं असयम आदि की परपरिणति से हट कर संयम आदि की स्वपरिगति में प्राता हूँ, औदयिक भाव का त्याग कर क्षायोपशमिक आदि प्रात्मभाव अपनाता हूँ। भला यहाँ अकल्पनीक वस्तु को छोड़ता हूँ और कल्पनीक वस्तु को ग्रहण करता हूँ--इस प्रतिज्ञा की क्या संगति ? प्राचार्य जिनदास सामान्यतः कहे हुए एक विध असयम के ही विशेष विवज्ञाभेद से दो भेद करते हैं 'मूल गुण असयन और उत्तर गुण अस यम ।' और फिर अब्रह्म शब्द से मूल गुण असयम का तथा अकल्प शब्द से उत्तर गुण असयम का ग्रहण करते हैं। प्राचार्य श्री के कथनानुसार प्रतिज्ञा का रूप यह होता है-''मैं मूल गुण असंयम का विवेक पूर्वक परित्याग करता हूँ और मूल गुण संयम को स्वीकार करता हूँ। इसी प्रकार उत्तर गुण असंयम को त्यागता हूँ और उत्तर गुण सयम को स्वीकार करता हूँ।" "सो य असंजमो विसेसतो दुविहोमूलगुण असंजमो उत्तरतुणप्रसजमो य । अतो सामण्णण भणिऊण संवेगाद्यर्थ विसेसतो चेव भणति-श्रबंभं० प्रबंभग्गहणेण मूलगुणा भरणंति त्ति एवं"श्रकप्पगहणेण उत्तरगुणत्ति "यावश्यक चूणि । श्रक्रिया और क्रिया प्राचार्य हरिभद्र, अक्रिया को अज्ञान का ही विशेष भेद मानते हैं अोर क्रिया को सम्यग् ज्ञान का। अतः अपनी दार्शनिक भाषा में आप अक्रिया को नास्तिवाद कहते हैं और क्रिया को सम्यगवाद | "प्रक्रिया नास्तिवादः क्रिया सम्यग्वादः ।” नास्तिवाद का अर्थ लोक, परलोक, धर्म, अधर्म आदि पर विश्वास न रखने वाला नास्तिकवाद है। और सम्यगवाद का अर्थ उक्त सब बातों पर विश्वास रखने वाला अास्तिकवाद है। For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy