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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्रमण-सूत्र नष्ट करता है, स्वयं रोगी को नहीं । रोग के साथ यदि रोगी भी समाप्त हो गया तो रोगी के लिए क्या अानन्द ? कम एक रोग है, अतः उसे नष्ट करना चाहिए । स्वयं प्रात्मा का नष्ट होना मानना, कहाँ का दर्शन है ? वैशेषिक दर्शन अात्मा का अस्तित्व तो स्वीकार करता है, परन्तु वह मोक्ष में सुख का होना नहीं मानता । वैशेषिक दर्शन कहता है कि 'मोक्ष होने पर आत्मा में न ज्ञान होता है, न सुख होता है, न दुःख होता है । 'नवानामात्म-विशेषगुणानामुच्छेदो मोक्षः । जैन दर्शन मोक्ष में दुःखाभाव तो मानता है, परन्तु सुखाभाव नहीं मानता । सुख तो मोक्ष में ससीम से असीम हो जाता है--अनन्त हो जाता है । हाँ पुद्गल सम्बन्धी कमजन्य सांसारिक सुख वहाँ नहीं होता; परन्तु श्रात्मसापेक्ष अनन्त श्राध्यात्मिक सुख का अभाव तो किसी प्रकार भी घटित नहीं होता । वह तो मोक्ष का वैशिष्टय है, महत्त्व है । 'परिनिव्वायंति' के द्वारा यही स्पष्टीकरण किया गया है कि जैन धर्म का निर्वाण न अात्मा का बुझ जाना है और न केवल दुःखाभाव का होना है । वह तो अनन्त सुख स्वरूप है । और वह सुख भी, वह सुख है, जो कभी दुःख से सपृक्त नहीं होता। प्राचार्य जिनदास परिनिध्वायंति की व्याख्या करते हुए कहते हैं 'परिनिव्वुया भवन्ति, परमसुहिणो भवतीत्यर्थः ।' सम्वदुक्खाणमंतं करेंति ___मोक्ष की विशेषताओं को बताते हुए सबके अन्त में कहा गया है कि 'धर्माराधक साधक मोक्ष प्राप्त कर शारीरिक तथा मानसिक सब प्रकार के दुःखों का अन्त कर देता है। प्राचार्य जिनदास कहते हैं, 'सत्वेसिं सारीर-माणसाणं दुक्खाणं अंतकरा भवन्ति, वोच्छिण्ण-सव्वदुक्खा भवन्ति । __प्रस्तुत विशेषण का सारांश पहले के विशेषणों में भी या चुका है। यहाँ स्वतंत्र रूप में इसका उल्लेख, सामान्यतः मोक्षस्वरूप का दिग्दर्शन कराने के लिए है। दर्शन शास्त्र में मोक्ष का स्वरूप सामान्यतः सब दुःखों का प्रहाण अर्थात् प्रात्यन्तिक नाश ही बताया गया है। For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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