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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २३८ श्रमण-सूत्र मन ? यह तो प्रात्मा का सर्वथा बर्बाद हो जाना हुया ! सर्वथा ज्ञानहीन जड़ पत्थर के रूप में हो जाना, कौन से महत्त्व की बात है ? इससे तो संसार ही अच्छा, जहाँ थोड़ा बहुत भान तो बना रहता है । अस्तु, आत्मा अनन्त ज्ञानी होने पर ही निजानन्द की अनुभूति कर सकता है। बुद्धत्त्व के विना सिद्धत्व का कुछ मूल्य ही नहीं रहता। अतः सिद्ध हो जाने के बाद भी बुद्धत्व का रहना अत्यन्त आवश्यक है। ज्ञान, श्रात्मा का निजगुण है, भला वह नष्ट कैसे हो सकता है? ज्ञानस्वरूप ही तो आत्मा है, अतः जब ज्ञान नहीं तो प्रात्ना का ही क्या अस्तित्व ? हाँ, मोक्ष में भी सिद्ध भगवान् सदाकाल अपने अनन्त ज्ञान प्रकाश से जगमगाते रहते हैं, वहाँ एक क्षण के लिए भी कभी अज्ञान अन्धकार प्रवेश नहीं पा सकता। अब उस प्रश्न का समाधान हो जाता है कि सिद्धत्व से पहले होने वाले बुद्धत्व को पहले न कहकर बाद में क्यों कहा ? बुद्धत्व को बाद में इसलिए कहा कि कहीं वैशेषिकदर्शन की धारणा के अनुसार जिज्ञासुत्रों को यह भ्रम न हो जाय कि 'सिद्ध होने से पहले तो बुद्धत्व भले हो, परन्तु सिद्ध होने के बाद बुद्धत्व रहता है या नहीं ?' अब पहले सिद्ध और बाद में बुद्ध कहने से यह स्पष्ट हो जाता है कि सिद्ध होने के बाद भी श्रात्मा पहले के समान ही बुद्ध बना रहता है, सिद्धत्व की प्राप्ति होने पर बुद्धत्व नष्ट नहीं होता। मुच्चंति 'मुच्चंति' का अर्थ कमों से मुक्त होना है। जब तक एक भी कम परमाणु यात्मा से सम्बन्धित रहता है, तब तक मोक्ष नहीं हो सकती। जैनदर्शन में कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः' ही मोन का स्वरूप है । मोक्ष में न ज्ञानावरणादि कर्म रहते हैं और न कर्म के कारण राग-द्वेष आदि । अर्थात् किसी भी प्रकार का औदायिक भाव मोद में नहीं रहता। याप प्रश्न करेंगे कि सय कर्मों का क्षय होने पर ही तो सिद्धत्व भाव For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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