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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २२६ श्रमण-सूत्र ज्ञानादि रत्नत्रय की साधना का यथार्थ रूप से निरूपण किया गया है, वह सामायिक से लेकर बिन्दुसार पूर्व तक का अागम साहित्य ।' आचार्य जिनभद्र, आवश्यक चूणि में लिखते हैं-'पावयणं सामाइयादि बिन्दुसारपजवसाणं, जत्थ नाण-दसणचारित्त-साहणवावारा अणेगधा वरिणज्जंति ।' प्राचार्य हरिभद्र लिखते हैं-'प्रकर्षेण अभिविधिना उच्यन्ते जीवादयो यस्मिन् तत्प्रावचनम् ।' ऊपर के वर्णन से प्रावचन अथवा प्रवचन का अर्थ 'श्रुत रूप शास्त्र' ध्वनित होता है । परन्तु हमने 'जिन शासन' अर्थ किया है, और जिन शासन का फलितार्थं 'जिन धर्म'। इसके लिए एक तो आगे की वर्णन शैली ही प्रमाण है । मोक्ष का मार्ग ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र रूप जैन धम है, केवल शास्त्र तो नहीं। भगवान महावीर ने निरूपण किया हैनाणं च दंसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा। एस मग्गोत्ति पएणत्तो, जिणेहिं वर - दंसिहि ।। -उत्तराध्ययन २८ ॥ १॥ -~-ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप ही मोन का मार्ग है। प्राचार्य उमास्वाति भी कहते हैं: ---- सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः । ---तत्त्वार्थ सूत्र १ । १ । एक स्थान पर नहीं, सैकड़ों स्थान पर इसी प्रकार ज्ञान, दर्शन और चारित्र को मोन मार्ग कहा है। प्रस्तुत सूत्र के 'इत्थं ठिा जीवा सिमति, बुझति, मुच्चंति' आदि पाट के द्वारा भी यही सिद्ध होता है। धर्म में स्थित होने पर ही तो जीव सिद्ध बुद्ध, मुक्त होते हैं; अन्यथा नहीं। आगे चल कर 'तं धम्म सद्दहामि, पत्तिश्रामि' में स्पष्टतः ही धर्म For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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