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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra नियागो = निदान रहित दिड्डि = = सम्यग दृष्टि से संपन्नो विरय = विरत हूँ पsिहय = नाश करने वाला हूँ पच्चक्रवाय = त्याग करने वाला हूँ पावकम्मो = पापकर्मो का " युक्र हूँ माया = माया सहित मो = मृषावाद से १ = www.kobatirth.org विवजियो = सर्वथा रहित हूँ अड्डाइज्जेसु = अढाई दीव = द्वीप समुद्र सु = समुद्रों में पन्नरससु = पन्दरह कम्मभूमीसु = कर्म भूमियों में जावंत = जितने भी केवि = कोई साहू = साधु हैं स्यहरण = रजोहरण प्रतिज्ञा-सूत्र Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गुच्छ = गोच्छक पडिग्गह = पात्र के धारा = धारक हैं पंच : पाँच महव्यय = महाव्रत के धारा = धारक हैं ग्रड्ट्ठार = अट्ठारह सहस्य = हजार सीलिंग धारा = धारक हैं अक्खय = अक्षत परिपूर्ण ग्रायार = ग्राचार रूप चरिता = चारित्र के धारक हैं = शीलाङ्ग के ते = उन सव्वे = सबको सिरसा = शिर से मरासा = मन से मत्थष्ण = मस्तक से चंदामि = वन्दना करता हूँ For Private And Personal २१७ भावार्थ भगवान् ऋषभदेव से लेकर भगवान् महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थकर देवों को नमस्कार करता हूँ | यह निर्ग्रन्थ प्रवचन श्रथवा प्रावचन ही सत्य है, अनुत्तर = सर्वोत्तम है, केवल = अद्वितीय है अथवा कैलिक = केवल ज्ञानियों से प्ररूपित है, प्रतिपूर्ण = मोक्षप्रापक गुणों से परिपूर्ण है, नैयायिक- मोच पहुँचाने वाला है अथवा न्याय से अबाधित है, पूर्ण शुद्ध अर्थात् सर्वथा निष्कलंक है, शल्यकर्तन = माया आदि शल्यों को नष्ट करने वाला है, सिद्धि
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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