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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir भयादि-सूत्र २०६ 'पडिकमामि एगविहे असंजमे' यह असयम का समास प्रतिक्रमण है। और यही प्रतिक्रमण अागे 'दोहिं बंधणेहिं' आदि से लेकर तेत्तीसाए प्रासायणाहि' तक क्रमशः विराट होता गया है । क्या यह प्रतिक्रमण तेतीस बोल तक का ही है ? क्या प्रतिक्रमण का इतना ही विराटरूप है ? नहीं, यह बात नहीं है । यह तो केवल सूचनामात्र है, उपल नण मात्र है । मलधार गच्छीय प्राचार्य हेमचन्द्र के शब्दों में 'दिङ मात्रप्रदर्शनाय' है। हाँ, तो प्रतिक्रमण के तीन रूप हैं जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट । 'पडिकमामि एगविहे असंजमे' यह अत्यन्त सक्षिप्त रूप होने से जघन्य प्रतिक्रमण है। दो से लेकर तीन, चार,'''दशशत" सहस्रलक्ष... कोटि""अबुद " किं बहुना, सख्यात"तथा असख्यात तक मध्यम प्रतिक्रमण है । और पूर्ण अनन्त की स्थिति में उत्कृष्ट प्रतिक्रमण होता है । इस प्रकार प्रतिक्रमण के संख्यात, असख्यात तथा अनन्त स्थान हैं। ___ यह लोकालोक प्रमाण अनन्त विराट सौंसार है । इसमें अनन्त ही असंयमरूप हिंसा, असत्य, आदि हेय स्थान हैं, अनन्त ही सयमरूप अहिंसा, सत्य आदि उपादेय-स्थान हैं, तथा अनन्त ही जीव, पुद्गल आदि शेय-स्थान हैं । साधक को इन सबका प्रतिक्रमण करना होता है । अनन्त सयम स्थानों में से किसी भी सयम स्थान का प्राचरण न किया हो, तो उसका प्रतिक्रमण है। अनन्त असयम स्थानों में से किसी भी असयम स्थान का पाचरण किया हो, तो उसका प्रतिक्रमण है। अनन्त ज्ञेय स्थानों में से किसी भी ज्ञेय स्थान की सम्यक् श्रद्धा तथा प्ररूपणा न की हो, तो उसका प्रतिक्रमण है। सूत्रकार ने एक से लेकर तेतीस तक के बोल सूत्रतः गिना दिए हैं। आखिर एक-एक बोल गिनकर कहाँ तक गिनाते ? कोटि-कोटि वर्षों का जीवन समाप्त हो जाय, तब भी इन सब की गणना नहीं की जा सकती । अतः तेतीस के समान For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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