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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १८२ श्रमगा-सूत्र 'सजमे' का उल्लेख किया है । 'सजमे' का अर्थ संयम है । सयम के भी पृथ्वी काय-सयम आदि सतरह भेद हैं । अठारह अब्रह्मचर्य देव-सम्बन्धी भोगों का मन, वचन और काय से स्वयं सेवन करना, दूसरों से कराना, तथा करते हुए को भला जानना-इस प्रकार नौ भेद वैक्रिय शरीर सम्बन्धी होते हैं। मनुष्य तथा तिर्यश्च सम्बन्धी औदारिक भोगों के भी इसी तरह नौ भेद समझ लेने चाहिएँ । कुल मिलाकर अठारह भेद होते हैं । [समवायांग] ज्ञाता धर्म कथा के १६ अध्ययन _(१ । उत्क्षिप्त अर्थात् मेघकुमार, (२) संघाट ( ३ ) अण्ड (४ । कृर्म (५ ) शैलक (६ ) तुम्ब (७) रोहिणी (८) मल्ली (६) माकन्दी (१०) चन्द्रमा ( ११ ) दावदत्र (१२) उदक ( १३) मण्डूक ( १४ ) तेतलि ( १५) नन्दी फल (१६) अवरकंका ( १७ । पाकीक ( १८) मुसुमादारिका (१६) पुण्डरीक । उक्त उन्नीस उदाहरणों के भावानुसार साधुधम की साधना न करना, अतिचार है। बीस असमाधि (१) द्रुत द्रुत चारित्व = जल्दी जल्दी चलना । (२) अप्रमृज्य चारित्व = विना पूँ जे रात्रि ग्रादि में चलना । । ३) दुप्रमृज्य चारित्व = विना उपयोग के प्रमार्जन करना । ( ४ ) अतिरिक्र शय्यासनिकत्व = अमर्यादित शय्या और प्रासन रखना। (५) रानिक पराभव = गुरुजनों का अपमान करना । ( ६ ) स्थविरोपघात = स्थविरों का उपहनन-अवहेलना करना । (७) भूतोपधात= भूत-जीवों का उपहनन (हिंसा ) करना । (८) संज्वलन = प्रतिक्षण यानी बार-बार ऋद्ध होना। For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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