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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir बोल-संग्रह ४३७ योनियाँ हो जाती हैं । कन्दमूल की जाति के मूलभेद ७०० हैं, अतः उनको भी पाँच वर्ण आदि से गुणा करने पर कुल १४००००० योनियाँ होती हैं। __इसी प्रकार द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय विकलत्रय के प्रत्येक के मूलभेद १०० हैं । उनको पाँच वर्ण श्रादि से गुणा करने पर प्रत्येक की कुल योनियाँ दो-दो लाख हो जाती हैं । तिर्यञ्च पञ्चन्द्रिय, नारकी एवं देवता के मूलभेद २०० हैं। उनको पाँच वर्ण आदि से गुणा करने पर प्रत्येक की कुल चार-चार लाख योनियाँ होती हैं। मनुष्य की जाति के मूलभेद ७०० हैं। अतः पाँच वर्ण श्रादि से गुणा करने से मनुष्य की कुल १४००००० योनियाँ हो जाती हैं। (२०) पाँच व्यवहार साधक-जीवन की प्राधार भूमि पाँच व्यवहार हैं । मुमुक्षु साधकों की प्रवृत्ति एवं निवृत्ति को व्यवहार कहते हैं । अशुभ से निवृत्तिं और शुभ में प्रवृत्ति ही व्यवहार है, और यही चारित्र है। प्राचार्य नेमिचन्द्र कहते हैं 'असुहादो विणिवित्ती, सुहे पचित्ती य जाण चारित्तं ।' साधक की प्रत्येक प्रवृत्ति निवृत्ति ज्ञान मूलक होनी चाहिए। ज्ञान शून्य प्रवृत्ति, प्रवृत्ति नहीं, कुप्रवृत्ति है । और इसी प्रकार निवृत्ति भी निवृत्ति नहीं, कुनिवृत्ति है । चारित्र का अाधार ज्ञान है । अतः जहाँ साधक की प्रवृत्ति निवृत्ति को व्यवहार कहते हैं, वहाँ प्रवृत्ति-निवृत्ति के श्राधार भूत ज्ञान विशेष को भी व्यवहार कहते हैं । .१. आराम व्यवहार केवल ज्ञान, मनः पर्याय ज्ञान, अवधिज्ञान, चौदह पूर्व, दश पूर्व और नव पूर्व का ज्ञान आगम कहलाता है । आगम ज्ञान से प्रवर्तित प्रवृत्ति एवं निवृत्ति रूप व्यवहार अागम व्यवहार कहलाता है। For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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