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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २६ श्रावश्यक दिग्दर्शन मनुष्य बनकर मनुष्य का जैसा काम नहीं किया, फलतः यह मनुष्य होकर भी राक्षस कहलाया । भोग, निरा भोग मनुष्य को राक्षस बनाता है । एक मात्र त्यागभावना ही है जो मनुष्य को मनुष्य बनाने की क्षमता रखती है । भोगविलास की दल दल में फँसे रहने वाले रावणों के लिए हमारे दार्शनिकों ने 'द्विभुजः परमेश्वरः' नहीं कहा है । यूनान का एक दार्शनिक दिन के बारह बजे लालटेन जला कर एथेंस नगरी के बाज़ारों में कई घंटे घूमता रहा । जनता के लिए, आश्चर्य की बात थी कि दिन में प्रकाश के लिए लालटेन लेकर घूमना ! दार्शनिक ने कहाआदमी दूँढ़ रहा हूँ ।" Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir एक जगह कुछ हजार आदमी इकट्ठे होगए और पूछने लगे कि "यह सब क्या हो रहा है ?" - " मैं लालटेन की रोशनी में इतने घन्टों से सब लोग खिल खिला कर हँस पड़े और कहने लगे कि "हम हजारों आदमी आपके सामने हैं । इन्हें लालटेन लेकर देखने की क्या बात है ?" दार्शनिक ने गर्ज कर कहा - "अरे क्या तुम भी अपने आपको मनुष्य समझे हुए हो ? यदि तुम भी मनुष्य हो तो फिर पशु और राक्षस कौन होंगे ? तुम दुनिया भर के अत्याचार करते हो, छल छंद रचते हो, भाइयों का गला काटते हो, कामवासना की पूर्ति के लिए कुत्तों की तरह मारे-मारे फिरते हो, और फिर भी मनुष्य हो ! मुझे मनुष्य चाहिए, वन मानुष नहीं !" दार्शनिक की यह कठोर, किन्तु सत्य उक्ति, प्रत्येक मनुष्य के लिए, चिन्तन की चीज़ है । एक और दार्शनिक ने कहा है कि "संसार में एक जिन्स ऐसी है, जो बहुत अधिक परिमाण में मिलती है, परन्तु मनमुताबिक नहीं मिलती ।" वह जिन्स और कोई नहीं, इन्सान है। जो होने को तो त्र For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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