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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २३ मानव जीवन का ध्येय अनन्त-अनन्त बार जन्ममरण न किया हो ? भगवती सूत्र में हमारे जन्ममरण की दुःख भरी कहानी का स्पष्टीकरण करने वाली एक महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तरी है ! गौतम गणधर पूछते हैं: "भंते ! असंख्यात कोड़ी कोड़ा योजन-परिमाण इस विस्तृत विराट लोक में क्या कहीं ऐसा भी स्थान है, जहाँ कि इस जीव ने जन्म-मरण न किया हो?" भगवान् महावीर उत्तर देते हैं: "गौतम ! अधिक तो क्या, एक परमाणु पुद्गल जितना भी ऐसा स्थान नहीं है, जहाँ इस जीव ने जन्म-मरण न किया हो ।” - "नधि केइ परमाणुपोग्गलमत्त विपएसे जत्थ णं अयं जीवे न जाए चा, न मए वा।" -[भग १२, ७, सू० ४५७ ] भगवान् महावीर के शब्दों में यह है हमारी जन्म-मरण की कड़ियों का लम्बा इ िहास ! बड़ी दुखभरी है हमारी कहानी ! अब हम इस कहानी को कब तक दुहराते जायँगे ? क्या मानव जीवन का ध्येय एकमात्र जन्म लेना और मर जाना ही है। क्या हम यों ही उतरते चढ़ते, गिरते-पड़ते इस महाकाल के प्रवाह में तिनके की तरह बेबस लाचार बहते ही चले जायँगे ? क्या कहीं किनारा पाना, हमारे भाग्य में नहीं बदा है ? नहीं, हम मनुष्य हैं, विश्व के सर्वश्रेष्ठ प्राणी हैं । हम अपने जीवन के लक्ष्य को अवश्य प्राप्त करेंगे ! यदि हमने मानव-जीवन का लक्ष्य नहीं प्राप्त किया तो फिर हम में और दूसरे पशु पक्षियों में अन्तर ही क्या रह जायगा ? हमारे जीवन का ध्येय, अधर्म नहीं, धर्म हैअन्याय नहीं, न्याय है-दुराचार नहीं, सदाचार है-भोग नहीं, त्याग है । धर्म, त्याग और सदाचार ही हमें पशुत्व से अलग करता है | अन्यथा हम में और पशु में कोई अन्तर नहीं है, कोई भेद नहीं है । इस सम्बन्ध में एक प्राचार्य कहते भी हैं कि आहार, निद्रा, भय और कामवासना जैसी पशु में हैं वैसी ही मनुष्य में भी हैं, अतः इनको ले कर, भोग को For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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