SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 381
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३५८ एवमाइएहिं = इत्यादि १ गारेदिं = आगारों से, अपवादों से श्रमण-सूत्र मे - मेरा काउस्सम्गो = कायोत्सर्ग अभग्गो = श्रभग्न श्रविराहिश्रो- श्रविराधित, श्रखंडित हुज्ज होवे - - [ कायोत्सर्ग कब तक ] जाव = जब तक अरिहंताणं = अरिहंत भगवंताणं = भगवानों को नमुक्कारेणं = नमस्कार करके, Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir यानी प्रकट रूप में 'नमोः अरि इंताणं' बोल कर न पारेभि = कायोत्सर्ग न पारू * ताव = तब तक ( मैं ) ठाणे : = एक स्थान पर स्थिर रह कर... मोसेस = मौन रह कर झाणेणं = ध्यानस्थ रह कर अपाण = अपने कार्य = शरीर को वोसिरामि = बोसराता हूँ, त्यागता हूँ भावार्थ: कायोत्सर्ग में काय-व्यापारों का परित्याग करता हूँ, निश्चल होता हूँ, परन्तु जो शारीरिक क्रियाएँ अशक्य परिहार होने के कारण स्वभावतः हरकत में खा जाती हैं, उनको छोड़कर । उच्छवास ऊँचा श्वास, निःश्वास = नीचा श्वास, कासित = खांसी, छिar = छौंक, उबासी, डकार, अपान वायु, चक्कर, पित्तविकारजन्य मूर्छा, सूक्ष्म रूप से अंगों का हिलना, सूक्ष्म रूप सेकर्क का निकलना, सूक्ष्म रूप से नेत्रों का हरकत में श्री जाना, इत्यादि श्रागारों से मेरा कायोत्सर्ग अभग्न एवं श्रविराधित हो । For Private And Personal - १- आचार्य भद्रबाहु स्वामी ने श्रावश्यक नियुक्ति में यदि शब्द का निर्वचन करते हुए लिखा है कि यदि अग्नि का उपद्रव हो, पञ्चेन्द्रिय प्राणी का छेदन-भेदन हो, सर्प श्रादि श्रपने को अथवा किसी दूसरे को काट खाए तो आत्म रक्षा के लिए एवं दूसरों की सहायता करने के लिए ध्यान खोला जा सकता है ।
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy