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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३६६ श्रमण-सूत्र भावार्थ विकृतियों का प्रत्यास्या न करता हूँ । अनाभोग, सहसाकार, लेपालेप, गृहस्थसंसृष्ट, उत्क्षिप्तविवेक, प्रतीत्यनक्षित, पारिष्ठापनिक, महत्तराकार, सर्वसमाधिप्रत्ययाकार-उक्त नौ आगारों के सिवा विकृति का परित्याग करता हूँ। विवेचन __ मन में विकार उत्पन्न करने वाले भोज्य पदार्थों को विकृति कहते हैं । मनसो विकृति हेतुत्वाद् विकृतयः' प्राचार्य हेमचन्द्र कृत योगशास्त्र तृतीय प्रकाश वृत्ति । विकृति में 'दूध, दही, मक्खन, घी, तेल, गुड़, मधु श्रादि भोज्य पदार्थ सम्मिलित हैं। भोजन, मानव ीवन में एक अतीव महत्त्वपूर्ण वस्तु है । शरीरयात्रा के लिए भोजन तो ग्रहण करना ही होता है। ऊँचे से ऊँचा साधक भी सर्वथा सदाकाल निराहार नहीं रह सकता । अतएव शास्त्रकारों ने बतलाया है कि.-भोजन में सात्त्विकता रखनी चाहिए। ऐसा भोजन न हो, जो अत्यन्त पौष्टिक होने के कारण मन में दूषित वासनात्रों की उत्पत्ति करे। विकारजनक भोजन संयम को दूषित किए विना नहीं रह सकता। १ विकृतियों के भक्ष्य और अभक्ष्यरूप से दो भेद किए गए हैं। मद्य और मांस तो सर्वथा अभय विकृतियाँ हैं । अतः साधक को इनका त्याग जीवन-पर्यन्त के लिए होता है। मधु और नवनीत = मक्खन भी विशेष स्थिति में ही लिए जा सकते हैं, अन्यथा नहीं । दूध, दही, घी, तेल, गुड़ आदि और अवगाहिम अर्थातू पक्वान्न-ये छः भक्ष्य विकृतियाँ हैं । भक्ष्य विकृतियों का भी यथाशक्ति एक या एक से अधिक के रूप में प्रति दिन त्याग करते रहना चाहिए । यथावसर सभी विकृतियों का त्याग भी किया जाता है। आवश्यक चूर्णि, प्रवचन सारोद्धार आदि प्राचीन ग्रन्थों में विकृतियों का बड़े विस्तार के साथ वर्णन किया गया है । For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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