SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 356
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ५४ www.kobatirth.org श्रमण-सूत्र उद्दविया, ठाणाओ ठाणं संकामिया, जोविया ववरोविया, तस्स मिच्छामि दुक्कडं । शब्दार्थ इच्छामि = चाहता हूँ । पडिक्कमिउं = प्रतिक्रमण करना, निवृत्त होना ( किस से ? ) इरियावहियाए = ऐर्यापथिकसम्बन्धी विराहणाए = विराधना से हिंसा से ( विराधना किस तरह होती है ? ) गमणागमणे = मार्ग' में जाते, श्राते पाणकमणे = प्राणियों को कुच लने से वीयक्कमणे = बीजों को कुचलने से हरियक्कमणे = हरित वनस्पति को कुचलने से श्रोसा = श्रोस को उत्तिंग = कीदीनाल या कीढ़ी आदि के बलको पणग = सेवाल, काई को दग= सचित्त जल को मट्टी = सचित्त पृथ्वी को Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir मक्कडा संताणा = मकड़ी के जालों को संकमणे = कुचलने से, मसलने से जे = जो भी मे मैने = जीवा = जीव विराहिया = विशधित किए हों ( कौन जीव विराधित किए हों ? ) - एगिंदिया = एकेन्द्रिय बेइ दिया = द्वीन्द्रिय तेइ दिया = श्रीन्द्रिय चउरिंदिया = चतुरिन्द्रिय पंचिंदिया = पंचेन्द्रिय ( विराधना के प्रकार ) श्रभिया = सम्मुख धाते हुए रोके हों वतिया धूलि आदि से ढाँपे हों लेसिया = भूमि आदि पर मसले हों For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy