SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 348
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३२८ श्रमण-सूत्र ( ७ ) अभक्तार्थ उपवास-सूत्र उग्गए सूरे, अभत्तट्ठ पच्चक्खामि, चउव्विहं पि आहार-असणं, पाणं, खाइम, साइमं । अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, पारिहापणियागारेणं, महत्तरागारेणं, सब्बसमाहिवत्तियागारेणं, वोसिरामि । भावार्थ सूर्योदय से लेकर अभक्तार्थ = उपवास ग्रहण करता हूँ; फलतः अशन, पान, खदिम और स्वादिम चारों ही श्राहार का त्याग करता हूँ। अनाभोग, सहसाकार, पारिष्ठापनिकाकार, महत्तराकार, सर्वसमाधि प्रत्ययाकार-उक्र पाँच श्रागारों के सिवा सब प्रकार के प्राहार का त्याग करता हूँ। विवेचन अभक्तार्थ, उपवास का ही पर्यायान्तर है। 'भक्त' का अर्थ 'भोजन' है। 'अर्थ' का अर्थ 'प्रयोजन' है । 'अ' का अर्थ 'नहीं' है । तीनों का मिलकर अर्थ होता है-भक्त का प्रयोजन नहीं है जिस व्रत में वह उपवास | 'न विद्यते भक्रार्थो यस्मिन् प्रत्याख्याने सोऽभकार्थः स उपवास:-देवेन्द्र कृत श्राद्ध प्रतिक्रमण वृत्ति । उपवास के पहले तथा पिछले दिन एकाशन हो तो उपवास के पाठ में 'वउत्थभत्तं अभत्तटुं दो उपवास में 'छट्ठभत्तं अभत्तट्ट' तीन १"भवन-भोजनेन अर्थः-प्रयोजनं भकार्थः, न भकार्थोऽ भकार्थः । अथवा न विद्यते भनार्थों यस्मिन् प्रत्याख्यानविशेषे सोऽभकार्थः उपवास इत्यर्थः ।" --प्रवचन सारोद्धार वृत्ति । For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy