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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org द्वादशावर्त गुरुवन्दन-सूत्र ३०१ इसके उत्तर में गुरुदेव भी 'श्रणुजाणामि' कह कर आज्ञा देते हैं, यह गुरुदेव की ओर का श्राज्ञाप्रदान- रूप दूसरा स्थानक है । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir " निसीहि ३ श्रहोर कार्य ३ कायसंफासं४ । खमणिजो५ भे६ किलामो७ । श्रप्पक्लिंताणंद बहुसुभेरा भे१० दिवसो ११ बक्कंतो १२ ?” -यह शिष्य की ओर का द्वादशपद रूप शरीरकुशलपृच्छा नामक तीसरा स्थानक है । इसके उत्तर में गुरुदेव 'संथा' कहते हैं । तथा का अर्थ है जैसा तुम कहते हो वैसा ही है, अर्थात् कुशल है । यह गुरुदेव की ओर का तीसरा स्थान है | इसके अनन्तर " जत्ता १ मे २” कहा जाता है । यह शिष्य की ओर का द्विपदात्मक संयम यात्रा पृच्छा नामक चौथा स्थानक है । उत्तर में गुरुदेव भी 'तुभं पि वह युष्माकमपि बर्तते ?' कहते हैं, जिसका अर्थ है - तुम्हारी संयम यात्रा भी निर्वाध चल रही है ? यह गुरुदेव की र का संयम यात्रा पृच्छा नामक चौथा स्थानक है । इसके बाद 66 जवणिजं १ च २ मे३" कहा जाता है । यह शिष्य की त्रिपदात्मक यापनीय पृच्छा नामक पाँचवाँ स्थानक है । उत्तर में गुरुदेव भी 'एव' कहते हैं, जिसका अर्थ है इन्द्रिय-विजय रूप यापना ठीक तरह चल रही है । यह गुरुदेव की ओर का पाँचवाँ स्थानक है । "3 इसके अनन्तर "खामेमिः खमासमणोर देव सि३ वकमं४ : कहा जाता है । यह शिष्य की ओर का पद ऋतुब्रयात्मक अपराधामणारूप छठा स्थानक है । उत्तर में गुरुदेव भी 'क्षमयामि' कहते हैं, जिसका अर्थ है मैं भी सारणा वारणा करते समय जो भूलें हुई हों, उसकी क्षमा चाहता हूँ । यह गुरुदेव की ओर का अपराध क्षामणा रूप छठा स्थानक है । For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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