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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्रमण-सूत्र . से किं तं नोइ दियजवणिज्जे ? जं मे कोहमाणमायालोमा वोच्छिन्न। नो उदीरेंति सेत्त नो इंदिय जवणिज्जे । -भगवती सूत्र १८ । १०।। प्राचार्य अभयदेव, भगवती सूत्र के उपयुक्त पाठ का विवरण करते हुए लिखते हैं-"यापनीयं = मोक्षाध्वनि गच्छतां प्रयोजक इन्द्रियादिवश्यतारूपो धर्मः । "इन्द्रियविषयं यापनीयं = वश्यत्वमिन्द्रिययापनीयं, एवं नो इन्द्रिययापनीयं, नवरं नो शब्दस्य मिश्रवचनत्वादिन्द्रियैमिश्राः सहार्थत्वाद् वा इन्द्रियाणां सहचरिता नोइन्द्रियाः कषायाः।" भगवती सूत्र में नोइन्द्रिय से मन नहीं, किन्तु कषाय का ग्रहण किया गया है | कषाय चूँ कि इन्द्रिय सहचरित होते हैं, अतः नो इन्द्रिय कहे जाते हैं। आचार्य जिनदास भी भगवती सूत्र का ही अनुसरण करते हैं'इन्दियजवणिज निरुवहताणि वसे य मे वटुंति इंदियाणि, नो खलु कजस्स बाधाए वतीत्यर्थः । एवं नोइन्दियजवणिज, कोधादीए वि णो भे बाहेति ।-अावश्यक चूर्णि । उपयुक्त विचारों के अनुसार यापनीय प्रश्न का यह भावार्थ है कि 'भगवन् ! अापकी इन्द्रिय-विजय की साधना ठीक-ठीक चल रही है ? इन्द्रियाँ अापकी धर्म साधना में बाधक तो नहीं होती ? अनुकूल ही रहती हैं न? और नोइन्द्रिय विजय भी टीक-ठीक चल रही है न ? क्रोधादि कषाय शान्त हैं ? आपकी धर्म यात्रा में कभी बाधा तो नहीं पहुँचाते ?? प्रवचनसारोद्धार की वृत्ति में प्राचार्य सिद्धसेन यात्रा और यापना के द्रव्य तथा भाव के रूप में दो-दो भेद करते हैं । मिथ्यादृष्टि तापस आदि की अपनी क्रिया में प्रवृत्ति द्रव्ययात्रा है, और श्रेष्ठ साधुओं की अपना महाप्रतादि रूप साधना में प्रवृत्ति भाव यात्रा है। इसी प्रकार द्राक्षारस आदि से शरीर को समाहित करना, द्रव्य यापना है, और इन्द्रिय तथा नो इन्द्रिय की उपशान्ति से शरीर का समाहित होना भावयापना है। For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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