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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २८४ श्रमण-सूत्र भ्रान्त धारणा है कि वह कठोर संयम-धर्म का अनुयायी है, अतः शरीर के प्रति लापरवाह होकर शीघ्र ही मृत्यु का आह्वान करता है। यह ठीक है कि वह उग्र सयम का आग्रही है। परन्तु सौंयम के अाग्रह में वह शरीर के प्रति व्यर्थ ही उपेक्षा नहीं रखता है। आप यहाँ देख सकते हैं कि पहले शरीर सम्बन्धी कुशल पूछा गया है और बाद में सयम यात्रा सम्बन्धी ! 'अव्वाबाहपुच्छा गता, एवं ता शरीरं पुच्छितं, इदाणि तवसंजम नियम जोगेसु पुच्छति ।-अावश्यक चूणि । यात्रा शिष्य, गुरुदेव से यात्रा के सम्बन्ध में कुशल क्षेम पूछता है । श्राप यात्रा शब्द देखकर चौंकिए नहीं। जैन संस्कृति में यात्रा के लिए स्थूल कल्पना न होकर एक मधुर आध्यात्मिक सत्य है। यात्रा क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर के लिए श्राइए, प्रभु महावीर के चरणों में चले। सोमिल ब्राह्मण भगवान् से प्रश्न करता है कि-'भगवन् ! क्या आप यात्रा भी करते हैं ?? भगवान् ने उत्तर दिया-'हाँ, सोमिल ! मैं यात्रा करता हूँ। सोमिल ने तुरन्त पूछा-'कौनसी यात्रा ?' सोमिल बाह्य जगस में विचर रहा था, भगवान अन्तर्जगत में विचरण कर रहे थे । भगवान् ने उत्तर दिया'सोमिल ! जो मेरी अपने तप, नियम, संयम, स्वाध्याय, ध्यान और श्रावश्यक श्रादि योग की साधना में यतना हैप्रवृत्ति है, वही मेरी यात्रा है।' कितनी सुन्दर यात्रा है ? इस यात्रा के द्वारा जीवन निहाल हो सकता है ? -"सोमिला ! जं मे तव-नियम-संजम-सज्झाय-ज्माणावसग्गमादिएसु जोएसु जयणा सेतं जत्ती " -भगवती सूत्र १८ । १० । यह जैन-धर्म की यात्रा है, श्रात्म-यात्रा। जैन धर्म की यात्रा का पथ जीवन के अंदर में से है, बाहर नहीं। अनन्त-अनन्त साधक इसी १ 'यात्रा तपोनियमादिलक्षणा क्षायिकमिश्रौपशमिकभावलक्षणा वा।'-प्राचार्य हरिभद्र, अावश्यक वृत्ति । For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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