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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २७८ श्रमण-सूत्र __शिष्य, गुरुदेव को वन्दन करने एवं अपने अपराधों की क्षमा याचना करने के लिए पाता है, अतः क्षमाश्रमण सम्बोधन के द्वारा प्रथम ही क्षमादान प्राप्त करने की भावना अभिव्यक्त करता है। प्राशय यह है कि 'हे गुरुदेव ! श्राप क्षमाश्रमण हैं, क्षमामूर्ति हैं । अस्तु, मुझ पर कृयाभाव रखिए । मुझसे जो भी भूले हुई हो, उन सब के लिए, क्षमा प्रदान कीजिए।' यापनीया _ 'या' प्रापणे धातु से ण्यन्त में कर्तरि अनीयच प्रत्यय होने से यापनीया शब्द बनता है। प्राचार्य हरिभद्र कहते हैं-'यापयतीति यापनी या तया ।' यापनीया का भावार्थ हरिभद्रजी यथाशक्तियुक्त तनु अर्थात् शरीर करते हैं। प्राचार्य जिनदास भी कार्यसमर्थ शरीर को यापनीय कार्यसमर्थ शरीर को यापनीय कहते हैं और असमर्थ शरीर को अयापनीय | 'यावणीया नाम जा केणति पयोगेण कजसमत्था, जा पुण पयोगेण वि न समत्था सा अजावेणीया। . 'यापनीय' कहने का अभिप्राय यह है कि 'मैं अपने पवित्र भाव से वन्दन करता हूँ। मेरा शरीर वन्दन करने की सामर्थ्य रखता है, अतः किसी दबाव से लाचार होकर गिरी पड़ी हालत में वन्दन करने नहीं अाया हूँ, अपितु वन्दना की भावना से उत्फुल्ल एवं रोमाञ्चित हुए सशक्त शरीर से वन्दना के लिए तैयार हुआ हूँ।' सशक्त एवं समर्थ शरीर ही विधिपूर्वक धर्म क्रिया का अाराधन कर सकता है ! दुर्बल शरीर प्रथम तो धमक्रिया कर नहीं सकता। और यदि किसी के भय से या स्वयं हठाग्रह से करता भी है तो वह अविधि से करता है, जो लाभ की अपेक्षा हानिप्रद अधिक है। धर्म साधना का रंग स्वस्थ एवं सबल शरीर होने पर ही जमता है । यापनीय शब्द की यही ध्वनि है, यदि कोई सुन और समझ सके तो ? 'जावणिजाए निसीहिदाए त्ति अणेण शक्रत्व विधी य दरिसिता ।-प्राचार्य जिनदास । For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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