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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir द्वादशावर्त गुरुवन्दन-सूत्र २७५ और कुशल क्षेम पूछना । गुरुदेव की प्राज्ञा में रहकर अपने जीवन का निर्माण करना, आज के युग में बड़ा कष्टप्रद प्रतीत होता है । वन्दन करते हुए अाज के शिष्य की गर्दन में पीड़ा होती है । वह नहीं जानता कि भारतीय शिष्य का जीवन ही वन्दनमय है । गुरु चरणों का स्पर्श मस्तक पर लगाने से ही भारतीय शिष्यों को ज्ञान की विभूति मिली है। गुरुदेव के प्रति बिनय, भक्ति ही हमारी कल्याण-परंपरायों का मूल स्रोत है । श्राचार्य उमास्वाति की वाणी सुनिए, वह क्या कहते हैं : विनयफलं शुश्रूषा, गुरुशुश्रूषाफलं श्रुतज्ञानम् ; ज्ञानस्य फलं विरति विरतिफलं चाश्रयनिरोधः । संवरफलं तपोबलमथ तपसो निर्जराफलं दृष्टम् ; तस्मात् क्रियानिवृत्तिः, क्रियानिवृत्तेरयोगित्वम् । योगनिरोधाद् भवसंततिक्षयः संततिक्षयान्मोक्षः ; तस्मात्कल्याणानां, सवषां भाजनं विनयः। --'गुरुदेव के प्रति विनय का भाव रखने से सेवाभाव की जागृति होती है, गुरुदेव की सेवा से शास्त्रों के गम्भीर ज्ञान की प्राप्ति होती है, ज्ञान का फल पानाचार से निवृत्ति है, और पापाचार की निवृत्ति का फल ग्राश्रवनिरोध है ।' -'याश्रवनिरोध - सवर का फल तपश्चरण है, तपश्चरण से कममल की निर्जरा होती है; निर्जरा के द्वारा क्रिया की निवृत्ति और क्रियानिवृित्त से मन वचन तथा काययोग पर विजय प्राप्त होती है।" -'मन, वचन और शरीर पर विजय पा लेने से जन्ममरण की लम्बी परंपरा का क्षय होता है, जन्ममरण की परम्परा के क्षय से आत्मा को मोक्षपद की प्राप्ति होती है। यह कार्यकारणभाव की निश्चित शृंखला हमें सूचित करती है कि समग्र कल्याणों का एकमात्र मूल कारण विनय है । For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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