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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir રપૂર श्रमगा-सूत्र विना नहीं रह सकते। अनिदान साधक ही पथ भ्रष्ट होने से बचते हैं और स्वीकृत साधना पर दृढ़ रहकर कम बन्धनों से अपने को मुक्त करते हैं। दृष्टिसम्पन्न का अर्थ है-'सम्यगदर्शन रूप शुद्ध दृष्टि बाला ।' साधक के लिए शुद्ध दृष्टि होना आवश्यक है। यदि भम्यग दर्शन न हो, शुद्ध दृष्टि न हो, तो हिताहित का विवेक कैसे होगा ? धर्माधम का स्वरूप-दशन कैसे होगा ? सम्यग दर्शन ही कर निमल दृष्टि है, जिसके द्वारा संसार को ससार के रूप में, मोन को मोक्ष के रूप में, सौंसार के कारणों को सौंमार के कारणों के रूप में, मोन के कारणों को मोक्ष के कारणों के रूप में, अर्थात् धर्म को धम के रू: में और अधर्म को अधम के रूप में देखा जा सकता है। प्राचार्य जिनदास इसी लिए 'दिहि सम्पन्नो' का अर्थ 'सवगुण मूल भूत गुणयुक्रत्व' करते हैं। 'सम्यग्दर्शन' वस्तुतः सब गुणों का मूलभूत जब तक सम्घा दर्शन का प्रकाश विद्यमान है, तब तक साधक को इधर-उधर भटकने एवं पथ भ्रष्ट होने का कोई भय नहीं है । मिथ्यादर्शन ही साधक को नीचे गिराता है, इधर-उधर के प्रलोभनों में उलझाता है। सम्यग्दर्शन का लक्ष्य जहाँ बन्धन से मुक्ति है, वहाँ मिथ्यादशन का लक्ष्य स्वयं बन्धन है | भोगासक्ति है, ससार है। अतएव श्रमण जब यह कहता है कि मैं दृष्टिसम्पन्न हूँ, तब उसका अभिप्राय यह होता है कि "मैं मिथ्यादृष्टि नहीं हूँ, सम्यग् दृष्टि हूँ। मैं सत्य को सत्य और सत्य को असत्य समझता हूँ मेरे समक्ष ससार एवं मोक्ष का रूप लेकर नहीं आ सकता, बन्धन मोक्ष नहीं हो सकता । मेरी विवेक दृष्टि इतनी पैनी है कि मुझे असयम, सयम का बाना पहन कर, अधर्म, धर्म का रूप बनाकर, धोखा नहीं दे सकता । मैं प्रकाश में विचरण करने के लिए हूँ। में अन्धकार में क्यों भटकूँ और दीवारों से क्यों टकराऊँ ? क्या मेरे आँख नहीं है ? अनंत काल से भटकते हुए इस अंधे ने ग्राँग्ख पा ली है । अतः For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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