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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रतिज्ञा सूत्र २२१ है कि जैसी साधना करनी हो उसी साधना के उपासकों का स्मरण किया जाता है। युद्धवीर युद्धवीरों का तो अर्थवीर अर्थवीरों का स्मरण करते हैं । यह धर्म युद्ध है, अतः यहाँ धर्मवीरों का ही स्मरण किया गया है । जैन धर्म के चौबीस तीर्थकर धर्म साधना के लिए अनेकानेक भयंकर परीपह सहते रहे हैं एवं अन्त में साधक से सिद्ध पद पर पहुँच कर अजर अमर परमात्मा हो गए हैं । अतः उनका पवित्र स्मरण हम साधकों के दुर्बल मन में उत्साह्. बल एवं स्वाभिमान की भावना प्रदीप्त करने वाला है। उनकी स्मृति हमारी यात्मशुद्धि को स्थिर करने वाली है। तीर्थंकर हमारे लिए अन्य कार में प्रकाश स्तंभ हैं । भगवान् ऋषभदेव वर्तमान कालचक्र में चौबीस तीर्थंकर हुए हैं, उनमें भगव न् ऋषभदेव सर्व प्रथम हैं । अापके द्वारा ही मानव सभ्यता का आविर्भाव हुअा है। अापसे पहले मानव जंगलों में रहता, वन फल खाता ए सामाजिक जीवन से शून्य अकेला घूमा करता था। न उसे धर्म का पता था और न कम का ही। भगवान् ऋषभ के प्रवचन ही उसे सामाजिक प्राणी बनाने वाले हैं, एक दूसरे के सुख दुःख की अनुभूति में सम्मिलित करने वाले हैं। दूसरे शब्दों में यों कहना चाहिए कि उस युग में मानव के पास शरीर तो मानव का था, परन्तु अात्मा मानव की न थी । भानव-यात्मा का स्वरूप-दर्शन, सर्व प्रथम, भगवान ऋषभदेव ने ही कराया। भगवान् ऋषभदेव जैन धर्म के अादि प्रवर्तक हैं | जो लोग जैन धर्म को सर्वथा अाधुनिक माने बैठे हैं, उन्हें इस अोर लक्ष्य देना चाहिए । भगवान् ऋषभदेव के गुण गान वेदों और पुराणों तक में गाए गए हैं । वे मानव-सस्कृति के प्रादि उद्धारक थे, अतः वे मानः . मात्र के पूज्य रहे हैं । अाजः भले ही वैदिक समाज ने, उनका वह ऋण, भुला दिया हो, परन्तु प्राचीन वैदिक ऋपि उनके .महान् उपकारों को For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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