SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 203
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १८३ भयादि-सूत्र ( 8 ) दोध कोप = चिरकाल तक क्रोध रखना । (१०) पृष्ठ मासिकत्व पीठ पीछे निन्दा करना । (११) अभितणावभाषण = सशंक होने पर भी निश्चित भाषा बोलना। (१२) नवाधिकरण करण = नित्य नए कलह करना । ( १३ ) उपशान्तकलहोदीरण = शान्त कलह को पुनः उत्तेजित करना। (१४) अकालस्वाध्याय = अकाल में स्वाध्याय करना । (१५) सरजस्कपाणि-भिक्षाग्रहण = सचित्तरज सहित हाथ आदि से भिक्षा लेना। (१६) शब्दकरण = पहर रात बीते विकाल में जोर से बोलना । (१७ ) झंझाकरण = गण-भेदकारी अर्थात् सघ में फूट डालने वाले वचन बोलना । ( १८ कलह करण = अाक्रोश यादि रूप कलह करना । (१६) सूर्यप्रमाण भोजित्व = दिन भर कुछ न कुछ खाते-पीते रहना । । २०) एवणाऽसमितत्व = एषणा समिति का उचित ध्यान न रखना। जिस सत्कार्य के करने से चित्त में शान्ति हो, अात्मा ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप मोक्षमार्ग में अवस्थित रहे, उसे समाधि कहते हैं । और जिस कार्य से चित्त में अप्रशस्त एवं अशान्त भाव हो, ज्ञानादि मोक्षमार्ग से ग्रात्मा भ्रष्ट हो उसे असमाधि कहते हैं। उपर्युक्त बीस कार्यों के आचरण से अपने और दूसरे जीवों को असमाधि भाव उत्पन्न होता है, साधक की आत्मा दूषित होती है, और उसका चारित्र मलिन होता है, अतः इन्हें असमाधि कहा जाता है। 'समाधानं समाविः-चेतसः स्वास्थ्य, मोक्षमार्गेऽ वस्थितिरित्यर्थः । न समाधिरसमाधिस्तस्य स्थानानि-आश्रया भेदाः पर्याया असमाधिस्थानानि ।' प्राचार्य हरिभद्र For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy