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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir भयादि-सूत्र १६६ ( ४ ) रूपमद-अपने रूप, सौन्दर्य का गर्व करना । (५) तपमद-उग्र तपस्वी होने का अभिमान । (६) श्रुतमद-शास्त्राभ्यास का अर्थात् पण्डित होने का अभिमान । (७) लाभमद-अभीट वस्तु के मिल जाने पर अपने लाभ का अहंकार । (८) ऐश्वर्यमद-अपने ऐश्वर्य अर्थात् प्रभुत्व का अहंकार । ये अाठमद समवायांग-सूत्र के उल्लेखानुसार हैं। मान मोहनीय कर्म के उदय से जन्य ये आठों ही मद सर्वथा त्याज्य हैं । यदि कभी प्रमादवश पाठों मदों में से किसी भी मद का श्रासेवन कर लिया गया हो तो तदर्थ हार्दिक प्रतिक्रमण करना उचित है। नौ ब्रह्मचर्य-गुप्ति (१) विविक्र-वसति-सेवन-स्त्री, पशु और नपुसकों से युक्त स्थान में न ठहरे। (२) स्त्री कथा परिहार-स्त्रियों की कथा वार्ता, सौन्दर्य अादि की चर्चा न करे। (३) निषद्यानुपक्शन-स्त्री के साथ एक ग्रासन पर न बैठे, उसके उठ जाने पर भी एक मुहूतं तक उस श्रासन पर न बैठे। (४) स्त्री-अंगोपांगादर्शन-स्त्रियों के मनोहर अंग उपांग न देखे । यदि कभी अकस्मात् दृष्टि पड़ जाय तो महसा हटा ले, फिर उसका ध्यान न करे । (५) कुझ्यान्तर-शब्दश्रवणादि-वर्जन-दीवार आदि की आड़ से स्त्री के शब्द, गीत, रूप आदि न सुने और न देखे । (६) पूर्व भोगाऽस्मरण-पहले भोगे हुए भोगों का स्मरण न करे। . (७) प्रणीत भोजन-त्याग-विकारोवादक गरिष्ठ भोजन न करे । (८) अतिमात्रभोजन-त्याग-रूखा-सूवा भोजन भी अधिक न For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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