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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १५६ श्रमण-सूत्र रांग तथा निशीथ सूत्र के अट्ठाईस अध्ययनों से अर्थात् तदनुसार आचरण न करने से, उनतीस पाप श्रुत के प्रसंगों से अर्थात मंत्र श्रादि पापश्रुतो का प्रयोग करने से, महामोहनीय कर्म के तीस स्थानों से सिद्धों के इकत्तीस श्रादि गुणों से अर्थात उनकी उचित श्रद्धा तथा प्ररूपणा न करने से, बत्तीस योग सग्रहों से अर्थात् उनका प्राचरण न करने से, तेतीस पाशातनाओं से [जो कोई अतिचार लगा हो उससे प्रतिक्रमण करता हूँ-उसका मिच्छामि दुक्कडं देता हूँ] [ कौन-सी तेतीस पाशातनाओं से ? ] अरिहंत, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय, साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका, देव, देवी, इहलोक, परलोक, केवलि-प्ररूपित धर्म, देव मनुष्य-असुरो सहित समग्र लोक, समस्त प्राण - विकल त्रय, भूत = वनस्पति, जीव = पञ्चेन्द्रिय, सत्य% पृथिवी काय अादि चार स्थावर, तथैव काल, श्रुत = शास्त्र, श्रुतदेवता, वाचनाचार्य-इन सबकी श्राशातना से---- __ तथा आगमों का अभ्यास करते एवं कराते हुए व्याविद्ध - सूत्र के पाठों को या सूत्र के अक्षरों को उजट-पुलट भागे पीछे किया हो, व्यत्याम्रोडित = शून्य मन से कई बार पढ़ता ही रहा हो, अथवा अन्य सूत्रों के एकार्थक, किन्तु मूलतः भिन्न-भिन्न पाठ अन्य सूत्रों में मिला दिए हों, हीनाक्षर = अक्षर छोड़ दिए हों, प्रत्यक्षर = अक्षर बढ़ा दिए हों, पद हीन = अक्षर समूहात्मक पद छोड़ दिए हों, विनय हीन = शास्त्र एवं शास्त्राध्यापक का समुचित विनय न किया हो, घोष हीन - उदात्तादि स्वरों से रहित पढ़ा हो, योगहीन - उपधानादि तपोविशेष के विना अथवा उपयोग के विना पढ़ा हो, सुष्णुदत्त = अधिक ग्रहण करने की योग्यता न रखने वाले शिष्य को भी अधिक पाठ दिया हो, दुष्टु प्रतीच्छित- वाचनाचार्य के द्वारा दिए हुए आगम पाठ को दुष्ट भाव से ग्रहण किया हो, अकाले स्वाध्याय = कालिक उत्कालिक सूत्रों को उनके निषिद्ध काल में पढ़ा हो, कालेऽस्वाध्याय - विहित काल में सूत्रों को न पड़ा हो, अस्वाध्यायिके स्वाध्यायित = अस्था For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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