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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir महावन-सूत्र श्रासय यह है कि -- 1 जाति, देश, काल और समय = प्राचार अर्थात् कुलोचित कर्तव्य के बन्धन से रहित सार्वभौम = सर्व विषयक महाव्रत होते हैं । मल्य हिंसा के सिवा अन्य हिंसा न करना, मच्छी मार की जात्यवच्छिन्ना अहिंसा है। अमुक तीर्थ यादि पर हिंसा नहीं करना देशावच्छिन्ना अहिंसा है। पूर्णमासी आदि पर्व के दिन हिंसा न करना कालावच्छिन्ना अहिंसा है । क्षत्रियों की युद्ध के सिवा अन्य हिंसा न करने की प्रतिज्ञा समयावच्छिन्ना अहिंसा है । अहिंसा के समान ही सत्य आदि के सम्बन्ध में भी समझ लेना चाहिए। जो अहिंसा प्रादि व्रत उपयुक्त जाति, देश काल, और समय की सीमा से सर्वथा मुक्त, असीम,निरवच्छिन्न तथा सर्वरूपेण हों वे महाव्रत पदवाच्य होते हैं । महाव्रत, तीन करा और तीन योग से ग्रहण किए जाते हैं । किसी भी प्रकार की हिंसा न स्वयं करना, न दूसरे से कसना, न करने वालों का अनुमोदन करना, मन से, वचन से और काय से—यह अहिंसा महाव्र । है । इसी प्रकार अंमत्य, स्लेव = चोरी, मैथुन = व्यभिचार, परिग्रह = धन धान्य आदि के त्याग के सम्बन्ध में भी नवकोटि की प्रतिज्ञा का भाव समझ लेना चाहिए। ___ पाँच महाव्रत साधु के पाँच मूल गुण कहे जाते हैं। इनके अतिरिक्त शेष प्राचार उत्तर गुण कहलाता है। उत्तर गुणों का आदर्श मूल गुणों की रक्षा में ही है, स्वयं स्वतन्त्र उनका कोई प्रयोजन नहीं । -जैन-धर्म में जात्यवच्छिन्ना अहिंसा ग्रादि का कोई महत्व नहीं है। जैन गृहस्थ की सीमित अहिंसा भी जाति, देश, तीर्थ अादि के बन्धन से रहित होती है । गृहस्थ की हिंसा विरोधी से आत्मरक्षा या किसी अन्य श्रावश्यक सामाजिक उद्देश्य के लिए ही खुली रहती है । जाति, कुल, तीर्थ यात्रा प्रादि के नाम पर होने वाली हिंसा जैन गृहस्थ के लिए त्याज्य है। गृहस्थ का अणुव्रत भी जाति, देश, कुल, तीर्थयात्रादि से अवच्छिन्न नहीं होता। वह इन सबसे ऊपर होता है । For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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